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उपन्‍यासकार नीरजा माधव ने कहा, कहानी और उपन्यास से ज्यादा प्रभावी है वैचारिक साहित्य

मशहूर उपन्यासकार और कथाकार डा. नीरजा माधव वैचारिक साहित्य को उपन्यास और कहानियों से ज्यादा प्रभावी मानती हैं। उनका मानना है कि उपन्यास और कथा के जरिए कोई भी संदेश हूबहू प्रेषित नहीं होता जबकि वैचारिक साहित्य पाठक के मन-मस्तिष्क पर सीधा प्रभाव डालता है।

By Navneet Prakash TripathiEdited By: Published: Sat, 04 Dec 2021 01:13 PM (IST)Updated: Sat, 04 Dec 2021 01:13 PM (IST)
उपन्‍यासकार नीरजा माधव ने कहा, कहानी और उपन्यास से ज्यादा प्रभावी है वैचारिक साहित्य
उपन्‍यासकार नीरजा माधव ने कहा, कहानी और उपन्यास से ज्यादा प्रभावी है वैचारिक साहित्य

गोरखपुर, जागरण संवाददाता। मशहूर उपन्यासकार और कथाकार डा. नीरजा माधव वैचारिक साहित्य को उपन्यास और कहानियों से ज्यादा प्रभावी मानती हैं। उनका मानना है कि उपन्यास और कथा के जरिए कोई भी संदेश हूबहू प्रेषित नहीं होता जबकि वैचारिक साहित्य पाठक के मन-मस्तिष्क पर सीधा प्रभाव डालता है। अपने नई वैचारिक कृति 'अर्थात् राष्ट्रवाद' के प्रकाशन के बाद डा. नीरजा शुक्रवार को जागरण से बातचीत कर रही थीं।

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देश वैचारिकी को नकारात्‍मक दिशा में मोडा गया

उन्होंने कहा कि कुछ कथित विचारकों ने देश की वैचारिकी को नकारात्मक दिशा में मोड़ दिया था। वह भारतीय संस्कृति तथा मूल्यों के प्रति लोगों में अनास्था का भाव जगा रहे थे। इन्हीं कारणों से उन्हें वैचारिक लेखन की ओर उन्मुख होना पड़ा। 'हिंदी साहित्य का ओझल नारी इतिहास', 'भारत राष्ट्र और उसकी शिक्षा पद्धति', 'यह राम कौन हैं', 'तत्वबोध विवेचनी' और अब 'अर्थात् राष्ट्रवाद' का सृजन इसी उद्देश्य का परिणाम है। 'अर्थात़ राष्ट्रवाद' के सृजन की वजह की जरूरत के विषय में डा. नीरजा ने बताया कि दरअसल आजादी के बाद से कुछ विचारकों द्वारा राष्ट्रवाद का प्रयोग संकुचित और सीमित अर्थों में किया जाने लगा था जबकि यह नागरिकों की अपने देश के प्रति रागात्मक भावना है।

पुस्‍तक के माध्‍यम से बताया गया है राष्‍ट्रवाद के मायने

पुस्तक माध्यम से राष्ट्रवाद के सही मायने बताने की कोशिश की गई है। नारी विमर्श ने साहित्य को कितना प्रभावित किया है और यह अपने उद्देश्य में कितना सफल है? इस सवाल के जवाब में उपन्यासकार ने कहा कि भारत में स्त्री विमर्श के नाम पर अश्लील लेखन का दौर चल निकला जो नई पीढ़ियों के लिए अच्छा नहीं रहा। क्षरित मूल्यों वाली पीढ़ियां तैयार होने लगीं। ऐसे में मुझे नहीं लगता कि यह विमर्श यहां सफल है। मेरी एक पुस्तक 'उचटती नींदों के बीच स्त्री' इस विषय पर विचार करने का अवसर देती है।

एक तरह का आंदोलन है साहित्‍य

साहित्यकारों को रैंकिंग देने की प्रथा से इत्तेफाक के सवाल पर उन्होंने कहा कि रैंकिंग इस बात की कोई गारंटी नहीं लेता कि भारत की पूरी जनता का वह निर्णय है। साहित्य एक तरह का आंदोलन है पर आजकल के साहित्य में यह दिख नहीं रहा? इसपर नीरजा ने कहा कि आन्दोलन इस समय भी चल रहा है। कई बार आन्दोलन प्रत्यक्ष दिखाई नहीं देता, पर वह अस्तित्व में होता है। राष्ट्रवाद की अलख भी एक आंदोलन ही है।

भाषा और बोलियों का है महत्‍व

भाेजपुरी को भाषा का दर्जा दिए जाने की राय पर उन्होंने कहा कि सभी भाषाओं और बोलियों का महत्व है और भोजपुरी भी उतनी ही महत्वपूर्ण है। नई पीढ़ी के साहित्यकारों की साहित्यिक चेतना की स्थिति पर डा. नीरजा की राय है कि नई पीढ़ी सजग भाव से साहित्य पढ़ रही है पर नये लेखक शार्टकट उपलब्धि के फेर में गम्भीर अध्ययन से बचते हुए लेखन कर रहे हैं, जो चिंतनीय है।


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