यहां संरक्षित हैं एक हजार वर्ष पुरानी पांडुलिपियां, दलाई लामा हैं इसके प्रधान संरक्षक
गोरखपुर के अंधियारी बाग में मौजूद 42 वर्ष पुराने नागार्जुन बौद्ध प्रतिष्ठान में पांच हजार से अधिक पांडुलिपियां सहेजी जा रही हैं। यहां नागरी प्रोटो नागरी बांग्ला प्रोटो बंगाली मैथिली अवधि आदि लिपियों में 200 से 1000 वर्ष तक पुरानी पांडुलिपियां संरक्षित हैं।
गोरखपुर, डाॅ. राकेश राय। पांडुलिपियों के विषय में जिज्ञासा हो तो उसे शांत करने के लिए देश-विदेश में भटकने की जरूरत नहीं। आपकी यह जिज्ञासा गोरखपुर में ही शांत हो सकती है। शहर के अंधियारी बाग में मौजूद 42 वर्ष पुराने नागार्जुन बौद्ध प्रतिष्ठान में पांच हजार से अधिक पांडुलिपियां सहेजी जा रही हैं। यहां नागरी, प्रोटो नागरी, बांग्ला, प्रोटो बंगाली, मैथिली, अवधि आदि लिपियों में 200 से 1000 वर्ष तक पुरानी पांडुलिपियां संरक्षित हैं।
प्रतिष्ठान के संस्थापक और गोरखपुर विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रो. करुणेश शुक्ल बताते हैं कि इन पांडुलिपियों के संग्रह और संरक्षण की शुरुआत संस्था की स्थापना के वर्ष यानी 1978 में हुई। इसके लिए उन्होंने मिथिला और जम्मू में रहने वाले ऐसे साथियों से संपर्क साधा, जो पांडुलिपि संग्रहण के कार्य में गहरे जुड़े हुए थे। मदद मिली तो पांच वर्ष में उनका प्रतिष्ठान करीब पांच हजार पांडुलिपियों का संग्रहालय बन गया। आज इस संग्रहालय में रामायण, महाभारत, गीता, पुराण, वेद, आयुर्वेद, व्याकरण, तंत्र, ज्योतिष विज्ञान की ऐतिहासिक पांडुलिपियों का संरक्षण हो रहा है। पांडुलिपियों को जुटाने और सहेजने के क्रम में ही प्रो. शुक्ल का संग्रहालय कब 16 हजार किताबों की लाइब्रेरी बन गया, पता ही नहीं चला।
दो बार हो चुका है दलाई लामा का आगमन
तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा नागार्जुन बौद्ध प्रतिष्ठान के प्रधान संरक्षक है। प्रो. शुक्ल ने बताया कि प्रतिष्ठान की ओर से समय-समय पर राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठियां भी आयोजित की जाती रही हैं। ऐसी ही दो संगोष्ठियों में शिरकत के लिए दलाई लामा एक बार 1981 में और दूसरी बार 1998 में गोरखपुर आ चुके हैं।
संरक्षण का है पुख्ता इंतजाम
नागार्जुन बौद्ध प्रतिष्ठान में न केवल पांडुलिपि या रखी गई हैं, बल्कि उन्हें सहेजने का भी पुख्ता इंतजाम है। इसकी जिम्मेदारी संभाल रहे डॉ. रामचंद्र मिश्र ने बताया कि इसके लिए एक प्रयोगशाला बनाई गई है। प्रयोगशाला में नेप्थलीन और थाईमोल नाम के केमिकल से पांडुलिपि में पनप रहे अदृश्य और दृश्य कीटाणुओं को समाप्त किया जाता है। इसके अलावा दो फ्यूमिगेशन गैस चेंबर हैं, जिनमें ज्यादा संक्रमित पांडुलिपियों को तब तक रखा जाता है, जब तक उनमें पनपा संक्रमण दूर न हो जाए। इसके अलावा एक डी-ह्यूमिडिफायर मशीन भी प्रतिष्ठान में है, जिससे पांडुलिपियों की नमी दूर की जाती है।
संरक्षण के लिए आगे आए सरकार: प्रो. करुणेश
पांडुलिपियों के संरक्षण में राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन वर्ष 2005 से ही प्रतिष्ठान की मदद कर रहा है लेकिन, प्रो. शुक्ल इससे संतुष्ट नहीं है। उनका मानना है कि इस संरक्षण का लाभ हर जिज्ञासु को मिले, इसके लिए सरकार को आगे आना चाहिये। शोध हो, तभी इतने बड़े संग्रह की सार्थकता है। 82 वर्षीय प्रो. शुक्ल चाहते हैं कि उनके जीते जी इस संग्रह को सरकार या कोई प्रतिष्ठित संस्था अपनी देखरेख में ले ले तो उन्हें सुकून मिल जाए।
क्या होती है पांडुलिपि
पांडुलिपि उस प्राचीन दस्तावेज को कहा जाता है, जो हस्तलिखित हो। प्राचीनकाल में ऋषि-मुनि जब विचार मीमांसा करते थे तो उनके भाष्य को भूमि पर खड़िया मिट्टी से लिपिबद्ध किया जाता था बाद में यह कार्य क्रमशः दीवारों, लकड़ी की पत्तियों और ताड़पत्रों पर होने लगा। जब कागज का दौर आया तो विचार कागजों पर उतरने लगे। छापाखाना के अविष्कार होने तक विचारों को दस्तावेजी रूप देने का यही प्रारूप पांडुलिपि कहलाया।