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प्रवासी कामगार बदल रहे दीपावली की तस्वीर

कोरोना ने सिर्फ स्वास्थ्य को ही नहीं बल्कि रोजगार को भी प्रभावित किया। हजारों कामगार बड़े शहरों को छोड़ गांव लौट आए। अनलाक के बाद कुछ ने दोबारा वापसी की तो कुछ ने स्थानीय स्तर पर काम शुरू कर दिया। ऐसे ही करीब छह कामगार प्रशिक्षण लेकर पैतृक व्यवसाय से जुड़ परिवार की माली हालत बदल रहे हैं।

By JagranEdited By: Published: Wed, 27 Oct 2021 05:21 PM (IST)Updated: Wed, 27 Oct 2021 05:21 PM (IST)
प्रवासी कामगार बदल रहे दीपावली की तस्वीर
प्रवासी कामगार बदल रहे दीपावली की तस्वीर

सिद्धार्थनगर : कोरोना ने सिर्फ स्वास्थ्य को ही नहीं बल्कि रोजगार को भी प्रभावित किया। हजारों कामगार बड़े शहरों को छोड़ गांव लौट आए। अनलाक के बाद कुछ ने दोबारा वापसी की तो कुछ ने स्थानीय स्तर पर काम शुरू कर दिया। ऐसे ही करीब छह कामगार प्रशिक्षण लेकर पैतृक व्यवसाय से जुड़ परिवार की माली हालत बदल रहे हैं। मिट्टी के बर्तन और दीयों का बड़े पैमाने पर निर्माण व बिक्री इनकी ओर से की जा रही रही है। दीपावली में पड़ोसी जनपद बलरामपुर से भी इन्हें आर्डर मिल रहे हैं।

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भड़रिया निवासी धर्मराज जाति के कुम्हार हैं। पैतृक व्यापार में मन नहीं लगा तो चार वर्ष पहले अपने हम बिरादरों के साथ मुंबई निकल लिए। कोई हुनर था नहीं तो कभी रंगाई पोताई अथवा मजदूरी का काम मिलता था। कोरोना काल में स्थिति भयावह हुई तो बड़ी मुश्किल से पिछले वर्ष गांव पहुंचे। ठान लिया कि अब गांव में ही कुछ करेंगे और परिवार भी संभालेंगे। सोहना कृषि विज्ञान केंद्र में आयोजित प्रशिक्षण में भाग लेकर मिट्टी के बर्तन बनाने का हुनर सीखा। साथ के लोगों और पत्नी को भी सिखाया। और जुट गए हुनर से परिस्थितियों को मात देने में। दशहरे में टीम ने 70 हजार रुपये के मिट्टी के बर्तन की बिक्री की। दीपावली में विशेष तैयारी है, और एक लाख रुपये से अधिक बिक्री की उम्मीद है। हर आकार के मिट्टी के दीये व बर्तन तैयार करने में धर्मराज के साथ फूलमती, धनीराम, संचित, चिनगुद सहित अन्य जुटे हैं।

इन्हें है पर्यावरण की फिक्र

धर्मराज ने बताया कि सामूहिक रूप से पराली जलाना इस समय खतरनाक है। वह लोग इसी पराली का प्रयोग बर्तन पकाने में करते हैं। बताया कि पराली को पकाने योग्य बर्तनों के साथ गड्ढे में भरकर मिट्टी से ढक दिया जाता है। धुंआ निकलने के लिए छोटे छिद्र होते हैं, जिससे कम मात्रा में धुंआ निकलता है, साथ ही बर्तन पकाने में कम खर्च भी बैठता है।

25 वर्ष से कर रहे कारोबार

बढ़नीचाफा में मिट्टी के बर्तनों की सबसे पुरानी दुकान सिद्दीकी की है। वह और उनका परिवार पिछले 25 वर्षों से बर्तन बनाकर बिक्री का काम करता है। बताया कि वह बलरामपुर के सराय खास के रहने वाले हैं। मिट्टी के बर्तन अधिकतर हिदू त्योहारों में ही बिकते हैं। इस बार विदेशी झालरों के बहिष्कार के बीच उन्हें दीयों की बेहतर बिक्री की उम्मीद है।


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