राष्ट्रहित में होगा एक साथ चुनाव कराना, अन्यथा विकास में विकास में पिछड़ता है देश Gorakhpur News
दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान विभाग के पूर्व अध्यक्ष ने कहा कि पूरे देश में एक साथ चुनाव कराना राष्ट्रहित में होगा।
By Edited By: Published: Tue, 25 Jun 2019 09:30 AM (IST)Updated: Tue, 25 Jun 2019 11:23 AM (IST)
गोरखपुर, जेएनएन। दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रो.श्रीप्रकाश मणि त्रिपाठी ने कहा कि एक देश, एक चुनाव की अवधारणा अच्छी है। अलग-अलग चुनाव कराने से समय व धन दोनों की हानि होती है और देश का विकास भी प्रभावित होता है। यदि एक साथ चुनाव होते हैं तो निश्चित रूप से यह राष्ट्रहित में होगा। भारत को दुनिया की महानतम शक्ति बनाने में यह मील का पत्थर साबित होगा।
प्रो.मणि सोमवार को दैनिक जागरण कार्यालय में आयोजित अकादमिक बैठक को संबोधित कर रहे थे। 'कैसे संभव हों एक साथ चुनाव' विषय पर चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि विषय नया नहीं है। 1999 से ही यह अस्तित्व में आया, अब इस पर गंभीर चर्चा शुरू हुई है। भारत 90 करोड़ मतदाताओं वाला देश है, इसलिए यहां निर्वाचन को लोकतंत्र का महापर्व कहा जाता है।
भारत में चुनाव की प्रक्रिया लंबी खिंचती है। हर साल कुछ विधानसभाओं के चुनाव होते रहते हैं। देखा जाए, तो साल में 200 दिन चुनाव या उससे जुड़ी प्रक्रिया चलती रहती है। इसमें धन व समय का व्यय तो होता ही है, पुलिस एवं अर्द्धसैनिक बलों के व्यस्त होने से देश की सुरक्षा भी प्रभावित होती है।
आचार संहिता के कारण विकास प्रभावित होता है क्योंकि विकास के लिए जिम्मेदार लोग चुनाव प्रक्रिया में व्यस्त होते हैं। उन्होंने कहा कि यदि 'एक देश, एक टैक्स' हो सकता है तो 'एक देश एक चुनाव' भी हो सकता है। हमारे चुनाव आयोग की छवि पूरे विश्व में सर्वाधिक प्रभावी एवं पारदर्शी चुनाव आयोग के रूप में है। 1999 में विधि आयोग ने एक साथ चुनाव की जरूरत बताई थी। 2014 लोकसभा चुनाव के बाद संसदीय समिति जरूर बनी, लेकिन कदम आगे नहीं बढ़ सके। 2019 के चुनाव के बाद प्रधानमंत्री ने इसपर आगे बढ़ने के संकेत दिए हैं।
चुनाव आयोग भी इसके लिए तैयार है। विधि आयोग ने भी 2018 में प्रतिवेदन प्रस्तुत किया है। इसमें एक साथ चुनाव को संभव बताया गया है, उसके लिए संविधान व जनप्रतिनिधित्व कानून 1951 में कुछ संशोधन की जरूरत बताई गई है। लोकसभा व विधानसभा के कार्यकाल को पांच साल निश्चित करना होगा।
अविश्वास प्रस्ताव की स्थिति में वैकल्पिक सरकार की व्यवस्था देनी होगी। एक साथ चुनाव के विरोध में संघीय ढांचे पर असर होने का तर्क दिया जाता है, लेकिन यह सशक्त तर्क नहीं है और न ही कोई आधार। विपक्ष में एक तर्क यह भी दिया जाता है कि क्षेत्रीय दलों का उन्नयन रुक जाएगा, लेकिन यह भी प्रभावी नहीं।
जो क्षेत्रीय दल परिवारवाद पर टिके रहेंगे, उनका नुकसान होगा। जनप्रतिनिधि को संविधान, राजनीतिक दल, लोकसभा/विधानसभा, अंतरात्मा व राष्ट्र के प्रति जवाबदेह होना चाहिए। उनमें ऐसा भाव होगा तो एक साथ चुनाव प्रतिकूल नहीं होगा।
प्रो.मणि सोमवार को दैनिक जागरण कार्यालय में आयोजित अकादमिक बैठक को संबोधित कर रहे थे। 'कैसे संभव हों एक साथ चुनाव' विषय पर चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि विषय नया नहीं है। 1999 से ही यह अस्तित्व में आया, अब इस पर गंभीर चर्चा शुरू हुई है। भारत 90 करोड़ मतदाताओं वाला देश है, इसलिए यहां निर्वाचन को लोकतंत्र का महापर्व कहा जाता है।
भारत में चुनाव की प्रक्रिया लंबी खिंचती है। हर साल कुछ विधानसभाओं के चुनाव होते रहते हैं। देखा जाए, तो साल में 200 दिन चुनाव या उससे जुड़ी प्रक्रिया चलती रहती है। इसमें धन व समय का व्यय तो होता ही है, पुलिस एवं अर्द्धसैनिक बलों के व्यस्त होने से देश की सुरक्षा भी प्रभावित होती है।
आचार संहिता के कारण विकास प्रभावित होता है क्योंकि विकास के लिए जिम्मेदार लोग चुनाव प्रक्रिया में व्यस्त होते हैं। उन्होंने कहा कि यदि 'एक देश, एक टैक्स' हो सकता है तो 'एक देश एक चुनाव' भी हो सकता है। हमारे चुनाव आयोग की छवि पूरे विश्व में सर्वाधिक प्रभावी एवं पारदर्शी चुनाव आयोग के रूप में है। 1999 में विधि आयोग ने एक साथ चुनाव की जरूरत बताई थी। 2014 लोकसभा चुनाव के बाद संसदीय समिति जरूर बनी, लेकिन कदम आगे नहीं बढ़ सके। 2019 के चुनाव के बाद प्रधानमंत्री ने इसपर आगे बढ़ने के संकेत दिए हैं।
चुनाव आयोग भी इसके लिए तैयार है। विधि आयोग ने भी 2018 में प्रतिवेदन प्रस्तुत किया है। इसमें एक साथ चुनाव को संभव बताया गया है, उसके लिए संविधान व जनप्रतिनिधित्व कानून 1951 में कुछ संशोधन की जरूरत बताई गई है। लोकसभा व विधानसभा के कार्यकाल को पांच साल निश्चित करना होगा।
अविश्वास प्रस्ताव की स्थिति में वैकल्पिक सरकार की व्यवस्था देनी होगी। एक साथ चुनाव के विरोध में संघीय ढांचे पर असर होने का तर्क दिया जाता है, लेकिन यह सशक्त तर्क नहीं है और न ही कोई आधार। विपक्ष में एक तर्क यह भी दिया जाता है कि क्षेत्रीय दलों का उन्नयन रुक जाएगा, लेकिन यह भी प्रभावी नहीं।
जो क्षेत्रीय दल परिवारवाद पर टिके रहेंगे, उनका नुकसान होगा। जनप्रतिनिधि को संविधान, राजनीतिक दल, लोकसभा/विधानसभा, अंतरात्मा व राष्ट्र के प्रति जवाबदेह होना चाहिए। उनमें ऐसा भाव होगा तो एक साथ चुनाव प्रतिकूल नहीं होगा।
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