राम भक्तों के लिए आपातकाल जैसा था वह दौर..
कश्मीर से कन्या कुमारी तक का जनसमुद्र अयोध्या में दिखा था।
जागरण संवाददाता, बस्ती : विवादित ढांचा विध्वंस प्रकरण में सुनवाई के बाद न्यायालय से सभी आरोपियों के बरी होने के बाद एक बार फिर राम भक्तों का उत्साह चरम पर पहुंच गया। 1992 का वह दौर मानस पटल पर छाया रहा। आंदोलन से जुड़ी स्मृतियां ताजी हो गई। 28 साल बाद भी कारसेवकों में वही जोश, वही जज्बा। मानस की चौपाई और खुशियों के गुबार से रामभक्त संवरते नजर आए। आइए,जानते हैं चश्मदीद कारसेवकों की जुबानी राम भक्तों पर वह दौर आपातकाल जैसा था। अयोध्या में ऐसी सख्ती थी कि परिदा भी पर न मार सके। चहुंओर हाहाकार था। बावजूद इसके कश्मीर से कन्या कुमारी तक का जनसमुद्र अयोध्या में उमड़ पड़ा था। प्रमुख मार्गों पर फोर्स थी। गांवों और नदियों के रास्ते रामभक्त अयोध्या पहुंचे थे। वह एक चमत्कारिक घटना थी। रामकाज कीन्हैं बिनु, मोहि कहां विश्राम की अविरल भावना जन-जन में थी। केवट मुफ्त में नाव से कारसेवकों को अयोध्या पहुंचा रहे थे। पड़ोसी जनपदों के अन्य नागरिक बाहर से आए कारसेवकों के लिए रहने, खाने और उनके मार्ग प्रशस्त करने की जिम्मेदारी निभा रहे थे। सभी नामित, गैरनामित रामकाज में लगे थे। उस समय मानस की यह चौपाई-धाए काम धाम सब लागे, मनहु रंक निधि लूटन लागे. चरितार्थ हो रही थी। सबकुछ अचानक हुआ था। प्रो. विष्णुकांत शास्त्री के साथ कारसेवा में हम भी शामिल हुए थे। वह दौर विस्मृत नहीं होता। राजेंद्र नाथ तिवारी, अध्यक्ष, पूर्वांचल विद्वत परिषद
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1992 में कारसेवा के लिए हम लोग छिपते-छिपाते अयोध्या पहुंचे थे। चहुंओर रामभक्तों का कारवां था। रामभक्तों की संख्या के आगे सरकार की बंदिशें टूट गई थी। हम मिट्टी, सीमेंट, रेती ढोए थे। हमारे टीम में पूर्व सांसद विनय कटियार चबूतरे के निर्माण के लिए राजगीर की भूमिका में थे। अनगिनत रामभक्त मंदिर निर्माण में कारसेवा को आतुर थे। देखते ही देखते ढांचा ध्वंस हो गया था। इस मामले में सभी को न्यायालय ने निर्दोष सिद्ध कर दिया। एक कारसेवक के नाते सबसे सुखद अनुभूति हो रही है। त्रयंबकनाथ पाठक, पूर्व प्रमुख एवं वरिष्ठ भाजपा नेता --
अयोध्या पहुंचने के लिए तब कोई साधन नहीं था। कर्फ्यू जैसा माहौल था। बाहर निकलने पर रामभक्तों को जेल में डाल दिया जाता था। हम पैदल चलकर अयोध्या पहुंचे थे। कारसेवा के दौरान हम गिरफ्तार कर लिए गए थे। गोरखपुर जेल में भेज दिया गया था। उस समय मोबाइल भी नहीं था। घर कोई संदेश नहीं पहुंचा था। 15 दिन बाद जेल से रिहा होने पर जब घर पहुंचे तो परिवार के लोग राहत महसूस किए। ढांचा विध्वंस में किसी का भी दोष नहीं था। सब अपने आप हुआ था। सतीश ओझा, कारसेवक, रजौली, हर्रैया, बस्ती।