पूर्वांचल के गौरजीत आम की पूरे देश में धूम, स्वाद व महक ऐसी कि हर कोई खिंचा चला आए
आमों का राजा पूर्वांचल का गौरजीत पूरे देश में अपनी धूम मचा रहा है। अपने स्वाद व सुगंध के कारण अलग पहचान रखने वाले गौरजीत की मांग यूपी में ही नहीं बिहार पंजाब मराहष्ट्र समेत देश के कई अन्य राज्यों में भी है।
गोरखपुर, जागरण संवाददाता। फलों के राजा आम ने बाजार में दस्तक दे दी है। तरह-तरह की प्रजातियों के आम ने दुकानों से लेकर ठेलों पर अपनी जगह बनानी शुरू कर दी है। पूर्वांचल की बात करें तो अभी यहां देश के अन्य हिस्सों की पहचान रखने वाले आम ही बाजार में दिख रहे हैं। ऐसे में लोग आम खरीद तो रहे हैं लेकिन यह पूछना नहीं भूल रहे कि भाई! गौरजीत बाजार में कब आ रहा है? कबतक खाने को मिलेगा? यह महज क्षेत्रीयता की बात नहीं है। ऐसा इसलिए भी है कि देश में भले ही सैकड़ों प्रजाति के आम हों, गौरजीत की बात ही निराली है। अनूठा स्वाद, अजब सी मिठास और उसे चूस-चूस कर खाने का अंदाज। भला कौन नहीं उसे खोजेगा।
यूं ही नहीं पंसद किया जाता गौरजीत
खाने के बाद हल्की डकार के साथ देर तक जीभ से लेकर मन-मस्तिष्क पर छाने वाल यह आम दुनिया का इकलौता ऐसा फल है, जिसकी अपने कुनबे में विशिष्ट पहचान है। फ्लेवर को लेकर, खाने के तरीके को लेकर, महक को लेकर। दशहरी व चौसा काटकर खाए जाने वाले आम हैं जबकि गौरजीत को चूस कर खाया जाता है। इस रूप में ही इसकी विशेष पूछ है। इसी खूबी के चलते पूर्वांचल के बागवान इसका सौदा करते हुए बड़े ही शान से कहते हैं कि वह आम भी क्या, जिसे चूस कर न खाया जा सके। वह दिन दूर नहीं जब घर-घर में गौरजीत की खुशबू बिखरेगी। उसके सहयोगी के तौर पर दशहरी और चौसा भी दुकानों पर बिकते नजर आएंगे।
पत्तों के साथ ही बिकता है गौरजीत
गौरजीत को पकाने के लिए किसी रसायन की आवश्यकता नहीं होती है। पूरब का सबसे पहले तैयार होने वाला आम है। जून के पहले सप्ताह से यह डालियों पर ही पकने लगता है। इसीलिए इसे दुकानदार इसे पत्तों के साथ बेचते हैं। आकर्षक पीले व हल्के लाल रंग और गोल आकार के चलते यह दूर से ही लोगों को लुभाता है। गोरखपुर, सिद्धार्थनगर, बस्ती, महराजगंज, संतकबीनगर, देवरिया, कुशीनगर जैसे जिलों में बड़े पैमाने पर तैयार होने वाले गौरजीत आम का सौदा बागवान बाग में ही कर देते हैं। उन्हें बिक्री के लिए परेशान नहीं होना पड़ता।
बस्ती में विकसित हुआ गौरजीत
संयुक्त निदेशक उद्यान बस्ती डा. अतुल सिंह का कहना है कि गौरजीत का स्वाद अल्फांसों या हापुस आम की तरह है। कुछ मामलों में यह उससे भी बेहतर है। अल्फांसों की कीमत दो सौ रुपये किलो होती हैं, जबकि गौरजीत मात्र चालीस रुपये में लोगों की पहुंच में होता है। इसकी उत्पत्ति गोरखपुर के ही किसी गांव से मानी जाती है। वर्ष 1958 से ही गौरजीत को बस्ती शोध केंद्र पर संकलित किया गया और उससे पौधे विकसित किए गए। इसलिए इसकी पहचान को बस्ती से जोड़कर देखा जाता है। कहा जाता है कि पहले इसका कोई नाम नहीं था। अंग्रेजों के समय में आम खाने की एक प्रतियोगिता हुई। उसमें इसे भी रखा गया। प्रतियोगिता में शामिल करने के लिए अंग्रेजों ने इसे गंवार नाम दिया था। प्रतियोगिता में इसे पहला स्थान मिला और यह गौरजीत हो गया।
इस लिए भी है गौरजीत का दबदबा
गौरजीत के दबदबे की एक और वजह है। पूर्वांचल में बारिश बहुत होती है। लगातार बारिश से आम में वह स्वाद नहीं रह जाता है, जो शुरुआती दिनों में रहता है। गौरजीत को छोड़कर पूर्वांचल में जितने भी आम हैं, वह देर से तैयार होने वाले हैं। जब तक यह प्रजातियां तैयार होती है, तब तक गौरजीत ही बाजार पर राज करता है। सबसे पहले बिक्री के चलते बाग मालिकों को इसकी अच्छी कीमत भी मिल जाती है। एक बात और, गौरजीत का पेड़ बहुत कम समय में तैयार हो जाता है। यह पहले ही साल से फल देने लगता है। चूंकि शुरू में डालियां कमजोर होती हैं इसलिए फल लेने के लिए कम से कम तीन वर्ष का समय रखा जाता है।
गोरखपुर व सिद्धार्थनगर में चल रही जीआइ की तैयारी
गौरतीज की अभी जीआइ नहीं हुई है। केंद्रीय उपोष्ण बागवानी संस्थान रहमान खेड़ा के वैज्ञानिकों द्वारा गोरखपुर व सिद्धार्थनगर में इसकी जीआइ(जियोग्राफिकल इंडेक्स) के संस्थान को भेजी जा चुकी है। अभी इसका क्लस्टर नहीं है। क्लस्टर तैयार होने के बाद इसे विदेशों में भी निर्यात किया जाएगा।
बाहर भी भेजे जा रहे हैं गौरजीत के पौधे
पंजाब, हिमाचल, बिहार, आंध्रप्रदेश, जम्मू, महाराष्ट्र सहित कई प्रदेशों में गौरजीत की डिमांड है। ऐसे में इन प्रदेशों को बस्ती से इसके पौधे की सप्लाई होती है। ऐसे में प्रदेश के बाहर भी अब इसके बाग तैयार हो रहे हैं। गोरखपुर-बस्ती मंडल से प्रतिवर्ष 10 से 15 हजार गौरजीत के पौधे लगाए जा रहे हैं। गोरखपुर-बस्ती मंडल में करीब 15 से 20 हजार हेक्टयेर आम के बाग हैं, इनमें करीब 10 प्रतिशत गौरजीत के पेड़ हैं।
यहां हैं गौरजीत के बड़े बाग
पूर्वांचल के अधिकांश जिलों में गौरजीत के बाग हैं, लेकिन इसके सबसे बड़े बाग सिद्धार्थनगर व गोरखपुर जिले में हैं। गोरखपुर में कैंपियरगंज, भटहट, सहजनवां, पिपराइच विकास खंड में और सिद्धार्थनगर में शोहरतगढ़, नौगढ़, बर्डपुर, बांसी क्षेत्र में बड़े पैमाने पर इसके बाग हैं।
छोटा नहीं दशहरी का साम्राज्य
पूर्वांचल में दशहरी का भी साम्राज्य छोटा नहीं है। दशहरी की मूल प्रजाति भले काकोरी के दशहरी गांव की हो, लेकिन गोरखपुर-बस्ती मंडल में उसके भी बड़े बाग हैं। करीब 20 जून से अपनी दशहरी बाग में आ जाती है। इसकी मिठास भी गौरजीत जैसी ही होती है। कैंपियरगंज के अलेनाबाद, बर्डपुर के शिवपतिनगर, नौगढ़ के ढुसरी में अभी भी इसके बड़े पैमाने पर बाग हैं।
चौसा पर ही है किसानों का जोर
पूर्वांचल के किसान अब चौसा की तरफ भी आकर्षित हो रहे हैं। सिद्धार्थनगर के बांसी और गोरखपुर के बड़हलगंज क्षेत्र के तमाम बागवानों ने चौसा के पौधे लगाए हुए हैं। कुछ के बाग से फल भी निकलने लगे हैं। चौसा मूलरूप से हरदोई जिले के संडीला का है। व्यवसाय को ध्यान में रखकर बागवानी करने वाले चौसा को सर्वाधिक पसंद कर रहे हैं। यह देर से पकने वाली प्रजाति है।
बिना कपूरी आम की बात ही अधृूरी
कपूरी मूल रूप से बनारसी लंगड़ा आम है। बंगाल में इसका आकार थोड़ा बड़ा हो गया है। इसे मालदा बोलते हैं। इस क्षेत्र में लोग कपूरी को भी पसंद करते हैं। यहां के बाग में बड़े पैमाने पर कपूरी के पौधे देखेने को मिलेंगे। यह दशहरी के साथ तैयार होने वाला फल है। बाजार में इसकी काफी मांग रहती है।
पूर्वांचल के बाग में आम्रपाली की भी बड़ी दखल
पूर्वांचल के बाग में आम्रपाली की बड़ी दखल है। यह भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद दिल्ली के द्वारा तैयार की गई प्रजाति है। बस्ती में इसे विकसित किया गया है। बस्ती में इसके 500 से अधिक मातृ पौधे हैं। यहां बड़े पैमाने पर आम्रपाली के पौधे तैयार किये जाते हैं। यहां अधिकांश नये बाग आम्रपाली के ही दिखेंगे। यह उत्तर प्रदेश की दशहरी व दक्षिण भारत की नीलम से क्रास करके तैयार की गई है। आम्रपाली के लिए दशहरी ने पिता की भूमिका निभाई है और नीलम ने मां की भूमिका निभाई। यह देर से तैयार होने वाली प्रजाति है। आम्रपाली का वजन तीन से पांच सौ ग्राम तक होता है।