शारदा सिन्हा ने कहा-लोकगीतों के बिना बेजान हैं हिंदी फिल्में
हिंदी फिल्मों के लिए लोकगीत अव अनिवार्य हो गया है। लोकगीतों के बिना फिल्म सूना-सूना लगता है। लोकगीतों की खुशबू ही अलग है।
गोरखपुर, जेएनएन। लोकगीतों की सोंधी खुशबू से दुनिया भर को महकाने वाली पद्मभूषण लोकगायिका शारदा सिन्हा का मानना है कि आज की तारीख में लोक संगीत फिल्मों की जरूरत है। 'मैंने प्यार किया', 'हम आपके हैं कौन' और 'गैंग ऑफ वासेपुर' जैसी मशहूर फिल्मों में लोक गायन से फिल्मी दुनिया में अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज करा चुकीं शारदा का दावा है कि जब भी फिल्मों में लोक संगीत का इस्तेमाल हुआ है, वह संगीत लोगों की जुबां पर जरूर चढ़ा है। शारदा सिन्हा गोरखपुर महोत्सव में हिस्सा लेने के लिए शहर में थीं। गोलघर के एक होटल में दैनिक जागरण से विशेष बातचीत में वह शास्त्रीय संगीत, फिल्म संगीत और लोक संगीत के रिश्तों पर अपने विचार को साझा कर रही थीं।
लोक संगीत में शास्त्रीयता के महत्व के सवाल पर उन्होंने कहा कि लोक संगीत का संबंध हमारे लोक व्यवहार से है जो संस्कारों से जुड़ा है। शास्त्रीयता इसको स्थायित्व देती है। जितने भी लोक गीत रचे गए हैं, वह किसी न किसी शास्त्रीय राग पर आधारित हैं। जब संगीत है तो राग तो होगा ही। फिल्म संगीत से लोक संगीत के संबंध की चर्चा जब आगे बढ़ी तो वह उन फिल्मी गीतों का जिक्र करना नहीं भूलीं, जो लोकगीतों से प्रेरित होकर गाए गए हैं। उन्होंने कहा कि 'पाकीजा' का गीत 'इन्हीं लोगों ने ले लीना दुपट्टा मेरा' लोक संगीत से ही लिया गया था। इसके अलावा 'धूल का फूल' का गीत 'तेरे प्यार का आसरा चाहता हूं' की तर्ज विद्यापति के गीत की पृष्ठभूमि पर तैयार हुई थी। यह तो महज बानगी है, ऐसे दर्जनों फिल्मी गीत हैं, जिसमें लोकगीतों की ध्वनि उभरकर सामने आती हैं। ऐसे सभी गीत सुपर-डुपर हिट भी हुए। सस्ती लोकप्रियता के फेर में लोकगीतों के गिरते स्तर पर चिंता जताते हुए शारदा सिन्हा ने कहा कि इससे लोक संगीत को काफी नुकसान पहुंच रहा है। ज्यादातर गायक बिना रियाज के ऊंचाई पाने की कोशिश में जुटे हैं। ऐसे में रियाज की परंपरा ही समाप्त होती नजर आ रही है, लोकगीतों का स्तर भी गिरता जा रहा है। उन्हें यह समझना होगा कि बिना रियाज की लोकप्रियता अस्थाई साबित होगी।