माला में पिरो दिए खुशहाली के फूल, नेपाल तक है डिमांड
जमीला खातून का मायका बनारस हैं। पति गरीब था। उसने प्लास्टिक का माला और फूल बनाना शुरू किया। अब चार दर्जन परिवार काम कर रहे हैं।
By Edited By: Published: Wed, 14 Nov 2018 09:15 AM (IST)Updated: Wed, 14 Nov 2018 09:58 AM (IST)
गोरखपुर, (जेएनएन)। देवरिया जनपद के मईल गांव की जमीला खातून ने हुनर का उपयोग गरीब परिवारों की बेहतरी के लिए किया है। मेहनत से 50 से अधिक परिवारों को न केवल आत्मनिर्भर बनाया, बल्कि स्वावलंबन की राह दिखाई। करीब दस वर्ष पूर्व पॉलिएस्टर के धागे की माला बनाने का कार्य शुरू किया और फिर अन्य महिलाओं को सिखाया। पति की मदद से तैयार माला के लिए बाजार उपलब्ध कराया।
पॉलिएस्टर से ही माला के लिए धागा और उसी धागे से फूल बनाए जाते हैं। इस समय देश के विभिन्न राज्यों के अलावा नेपाल में यहां के बने माला की मांग है। वाराणसी में पली-बढ़ी जमीला शादी के बाद जब मईल आई तो यहां की गरीबी और तंगहाली देखकर परेशान हो गई। लोग कर्ज में डूबे हुए थे और उनके पास कोई काम नहीं था। परिवार को गरीबी से बाहर निकालने के लिए वह स्वरोजगार की राह चल पड़ी। शुरुआत में काफी दिक्कत हुई। परिवार के लोगों का पूरा सहयोग नहीं मिल पाता था।
बनारस में सीखा था माला बनाना
जमीला ने अपने मायके में पॉलिस्टर का धागा बनाना सीखा था। पति मुंसफ के सहयोग से उसने पॉलिएस्टर का माला बनाने का कार्य शुरू किया। धीरे-धीरे गांव की अन्य महिलाएं व पुरुष भी इस कार्य में जुट गए। असगर, गुड़िया, हदीश, अमरुन निशा, अदालत, शफीक, गुड़िया खातून, बेबी, वकील, बबलू इस कार्य से जुड़ गए। पहले तो तैयार माल खुद बाजार पहुंचाकर बेचना पड़ता था। महिलाएं धागा बनातीं और पुरुष उसे बाजार में ले जाकर बेचते। माला में गुणवत्ता व रंग पक्का होने से धीरे-धीरे माला की मांग बढ़ने लगी। जमीला महिलाओं को कच्चा माल गुजरात से मंगा कर उपलब्ध कराती हैं और तैयार माल बिकने के बाद उसमें से लागत काट कर पूरा मुनाफा उन महिलाओं को देती हैं।
माला खरीदने पहुंचते हैं व्यापारी
व्यापारी खुद माला की खरीदारी करने गांव पहुंचते हैं। लगन, दुर्गा पूजा, दशहरा, दीपावली, छठ, विश्वकर्मा पूजा आदि पर्व से पहले व्यापारी यहां आते हैं और माला खरीद कर ले जाते हैं। कानपुर, लखनऊ, मध्य प्रदेश, दिल्ली, बिहार के साथ-साथ नेपाल के व्यापारी भी यहां खरीदारी करने पहुंचते हैं। एक माला की कीमत 25 से लेकर पांच सौ रुपये तक है। इस समय करीब चार दर्जन से अधिक परिवार इस धंधे से जुड़ गए हैं। कारोबार का सालाना टर्न ओवर 75 लाख तक पहुंच गया है। जमीला की सोच से गांव में स्वावलंबन का सपना सच हुआ है।
जीएसटी से राहत दे सरकार
जमीला ने बताया कि जब वह यहां आई तो काफी गरीबी थी। मायके में मैंने माला बनाने का कार्य सीखा था। पति के सहयोग से यहां भी कार्य शुरू किया। गांव की अन्य महिलाएं भी इस कार्य में जुट गई हैं। मेरे साथ अन्य परिवारों की माली हालत बेहतर हुई है। इस कुटीर उद्योग पर जीएसटी से असर पड़ रहा है। सूरत की साड़ी कंपनियों से निकलने वाले कतरन को कबाड़ के भाव खरीदा जा रहा है। कंपनियां हमसे वहां जीएसटी लेती हैं, जिससे माला की कीमत बढ़ जाती है। इस कारोबार को बचाने के लिए सरकार को जीएसटी से राहत देने की जरूरत है।
पॉलिएस्टर से ही माला के लिए धागा और उसी धागे से फूल बनाए जाते हैं। इस समय देश के विभिन्न राज्यों के अलावा नेपाल में यहां के बने माला की मांग है। वाराणसी में पली-बढ़ी जमीला शादी के बाद जब मईल आई तो यहां की गरीबी और तंगहाली देखकर परेशान हो गई। लोग कर्ज में डूबे हुए थे और उनके पास कोई काम नहीं था। परिवार को गरीबी से बाहर निकालने के लिए वह स्वरोजगार की राह चल पड़ी। शुरुआत में काफी दिक्कत हुई। परिवार के लोगों का पूरा सहयोग नहीं मिल पाता था।
बनारस में सीखा था माला बनाना
जमीला ने अपने मायके में पॉलिस्टर का धागा बनाना सीखा था। पति मुंसफ के सहयोग से उसने पॉलिएस्टर का माला बनाने का कार्य शुरू किया। धीरे-धीरे गांव की अन्य महिलाएं व पुरुष भी इस कार्य में जुट गए। असगर, गुड़िया, हदीश, अमरुन निशा, अदालत, शफीक, गुड़िया खातून, बेबी, वकील, बबलू इस कार्य से जुड़ गए। पहले तो तैयार माल खुद बाजार पहुंचाकर बेचना पड़ता था। महिलाएं धागा बनातीं और पुरुष उसे बाजार में ले जाकर बेचते। माला में गुणवत्ता व रंग पक्का होने से धीरे-धीरे माला की मांग बढ़ने लगी। जमीला महिलाओं को कच्चा माल गुजरात से मंगा कर उपलब्ध कराती हैं और तैयार माल बिकने के बाद उसमें से लागत काट कर पूरा मुनाफा उन महिलाओं को देती हैं।
माला खरीदने पहुंचते हैं व्यापारी
व्यापारी खुद माला की खरीदारी करने गांव पहुंचते हैं। लगन, दुर्गा पूजा, दशहरा, दीपावली, छठ, विश्वकर्मा पूजा आदि पर्व से पहले व्यापारी यहां आते हैं और माला खरीद कर ले जाते हैं। कानपुर, लखनऊ, मध्य प्रदेश, दिल्ली, बिहार के साथ-साथ नेपाल के व्यापारी भी यहां खरीदारी करने पहुंचते हैं। एक माला की कीमत 25 से लेकर पांच सौ रुपये तक है। इस समय करीब चार दर्जन से अधिक परिवार इस धंधे से जुड़ गए हैं। कारोबार का सालाना टर्न ओवर 75 लाख तक पहुंच गया है। जमीला की सोच से गांव में स्वावलंबन का सपना सच हुआ है।
जीएसटी से राहत दे सरकार
जमीला ने बताया कि जब वह यहां आई तो काफी गरीबी थी। मायके में मैंने माला बनाने का कार्य सीखा था। पति के सहयोग से यहां भी कार्य शुरू किया। गांव की अन्य महिलाएं भी इस कार्य में जुट गई हैं। मेरे साथ अन्य परिवारों की माली हालत बेहतर हुई है। इस कुटीर उद्योग पर जीएसटी से असर पड़ रहा है। सूरत की साड़ी कंपनियों से निकलने वाले कतरन को कबाड़ के भाव खरीदा जा रहा है। कंपनियां हमसे वहां जीएसटी लेती हैं, जिससे माला की कीमत बढ़ जाती है। इस कारोबार को बचाने के लिए सरकार को जीएसटी से राहत देने की जरूरत है।
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