मुसाफिर हूं यारों - लेकिन यह सीढ़ी तो चली ही नहीं.. Gorakhpur News
पढ़ें गोरखपुर से प्रेम नारायण द्विवेदी का साप्ताहिक कॉलम मुसाफिर हूं यारों..
गोरखपुर, जेएनएन। प्लेटफार्म नंबर दो पर वीआइपी गेट के पास लगे एस्केलेटर (स्वचालित सीढ़ी) पर बुजुर्ग दंपती लाठी के सहारे चढ़ रहे थे। 60 पार कर चुकी महिला एक हाथ से सीढ़ी की रेलिंग तो दूसरे में दवा की गठरी पकड़े थी। 70 की दस्तक दे रहे पुरुष लाठी पकड़े सीढ़ी पर बीच में खड़े थे। फुट ओवरब्रिज पर पहुंच चुके एक युवा से देखा नहीं गया तो उसने नीचे उतरकर दंपती को थाम लिया। हांफते हुए किसी तरह फुट ओवरब्रिज पर पहुंचे पति-पत्नी बैठ गए। सांसों को काबू करते हुए पति ने कहा, यह सीढ़ी तो चली ही नहीं। तुम तो बता रही थी, सीढ़ी भी चलती है। जीवन में चलती सीढ़ी कभी देखी ही नहीं। दोनों की बातें सुन युवा बीच में बोल पड़ा। दादा यह सीढ़ी चलते-चलते कब रुक जाएगी, किसी को नहीं पता। पति का हाथ पकड़ते हुए महिला खड़ी हो गई। चलो, नहीं तो इंटरसिटी छूट जाएगी।
का खाएं, यह जो खांसी है
गोरखपुर रेलवे स्टेशन पर अंत्योदय एक्सप्रेस की सीट छोडऩे से पहले कई लोगों के हाथ मोबाइल से चिपक गए। पहुंच गया हूं, चावल चढ़ा दो। रात के एक बजने वाले हैं, अब बर्दाश्त नहीं हो रहा। यह कहते हुए यात्रियों ने बोगी खाली कर दी। जिन्हें छपरा तक जाना था, वे खानपान के स्टालों की तरफ बढ़ गए। यात्री स्टालों तक पहुंचे तो जरूर, लेकिन खरीदने व खाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे। वेंडर भी उनका मुंह ताक रहे थे कि कुछ कहें। इसी बीच एक युवक पहुंचा और छोला-चावल लेकर खाने लगा। उसने साथी यात्रियों से कहा, तुम लोग भी लो। इतने में एक यात्री की दबी आवाज निकली, ई जो मोबाइल की खांसी है, बाहर कुछ खाने और बोलने नहीं दे रही। डकार मारते हुए युवक बोला, डरने की नहीं सतर्कता बरतने और जागरूक रहने की जरूरत है। साबुन से हाथ धुलिए और गर्म भोजन कीजिए।
किराए से अधिक तो नजराना
होली की पूर्व संध्या पर गोरखपुर से वाराणसी जा रही ट्रेन की एक बोगी में बैठे युवाओं की टोली की निगाह एकाएक ताली की आवाज की तरफ घूम गई। युवा कुछ समझ पाते कि चल निकाल की आवाज कानों से होते दिल तक पहुंच गई। युवा भी मस्ती के मूड में थे। इठलाती, इतराती टीम के साथ ठिठोली शुरू हो गई। बीच-बीच में अभद्रता परिवार के साथ बैठे लोगों को परेशान कर रही थी। युवाओं के बीच परिवार के साथ बैठे एक मित्र व अन्य यात्री भी असहज हो गए। तभी कंधे पर हाथ होने का अहसास हुआ। कातर निगाहों से उन्होंने ऊपर देखा और टालने की नीयत व निरीह भाव से 100 की नोट थमाकर राहत की सांस ली। देर रात मोबाइल पर बधाई के साथ नजराना की खीज उतारकर ही वह शांत हुए। खैर, पर्व है तो न चाहते हुए भी नजराना बनता है। लेकिन, रोजाना कब तक।
हेल्पलाइन नंबर पर झेप गए साहब
होली के दौरान पूर्वांचल के यात्रियों को आरामदायक सुविधा उपलब्ध कराने के लिए रोडवेज के लखनऊ वाले साहब गोरखपुर परिक्षेत्र के दौरे पर थे। सुविधाओं की जानकारी जन-जन तक पहुंचाने के लिए उन्होंने मीडिया वालों को बुला लिया। पत्रकारों की भीड़ देख उनका उत्साह बढ़ा और लगातार उपलब्धियां गिनाने लगे। इसी दौरान वह बोल पड़े, कोई शिकायत हो तो हेल्पलाइन नंबर पर दर्ज कराएं। तत्काल कार्रवाई होगी। यह सुन एक मीडियाकर्मी ने शिकायत भरे लहजे में कहा, साहब बसों में दिए गए हेल्पलाइन नंबर तो काम ही नहीं करते। यह सुन साहब बोले, नहीं काम करता है। मिलाकर देख लीजिए। मीडियाकर्मी ने भी मौके पर हेल्पलाइन नंबर मिला दिया। टू...टू... की आवाज के साथ काल बंद हो गई। मीडियाकर्मी ने दूसरी बार फोन मिलाकर जले पर नमक छिड़क दिया। इसके साथ ही साहब झेप गए। पास बैठे अधिकारियों की तरफ देखा और इसके साथ ही पत्रकार वार्ता समाप्त हो गई।