जुबां ही नहीं जेहन में भी बसी है गोरखपुर के बुढ़ऊ चाचा की बर्फी
गोरखपुर में पिछले पचास साल से बुढऊ चाचा की बरफी ब्रांड बनी हुई है। लोग दूर दूर से यहां बरफी लेने आते हैं।
By Pradeep SrivastavaEdited By: Published: Mon, 19 Nov 2018 12:25 PM (IST)Updated: Thu, 22 Nov 2018 10:28 AM (IST)
गोरखपुर, जेएनएन। बर्फी की शुद्धता की चर्चा होते ही बरगदवां में बनने वाली बढ़ऊ चाचा की बर्फी का नाम खुद-ब-खुद हर किसी की जुबां पर आ ही जाता है। बीते पांच दशक से उनकी यह बर्फी कद्रदानों में अपनी विश्वसनीयता को बरकरार रखे हुए है। बुढ़ऊ चाचा तो अब रहे नहीं, लेकिन उनके दामाद राम प्यारे चौधरी और नाती राकेश चौधरी इस विश्वसनीयता को बनाए रखने का बीड़ा पूरी शिद्दत से उठाए हुए हैं।
नाती राकेश बताते हैं कि उनके नाना तिलक चौधरी ने बर्फी बनाने का काम 1968 में शुरू किया। नकहा जंगल के रहने वाले तिलक लुटेरों से रक्षा के लिए दूध बेचते हुए अक्सर बेटी सवित्री के घर बरगदवां आ जाया करते थे। बरगदवां क्षेत्र में उन दिनों फर्टिलाइजर की वजह से चाय और बर्फी की बिक्री का काफी स्कोप था, सो वह जब भी आते बिकने से बचे दूध की बर्फी और चाय बनाकर बेचते। यह काम वह एक झोपड़ी डालकर करते थे, लेकिन उनकी बर्फी शुद्धता की वजह से कोठी-अटारी वाले लोगों के जुबां पर चढऩे लगी। धीरे-धीरे स्थिति यह हो गई कि उनके यहां ग्राहकों की कतार लगने लगी। कई बार मांग के मुताबिक सप्लाई में भी मुश्किल आने लगी।
बावजूद इसके तिलक इस बात को लेकर संजीदा रहते थे कि कोई उनकी दुकान से खाली हाथ न जाए। तिलक चौधरी बूढ़े हो चले थे और उनका नाम हर कोई जानता नहीं था, इसलिए उनकी ख्याति बढ़ऊ चाचा के नाम से हो गई। धीरे-धीरे बढ़ऊ चाचा की बर्फी बिना किसी प्रचार-प्रसार के एक ब्रांड बन गई। 2001 में जब बढ़ऊ चाचा नहीं रहे तो उनके दुकान की कमान दामाद रामप्यारे चौधरी ने संभाली, लेकिन उन्होंने भी अपने ससुर की साख की खातिर बर्फी की गुणवत्ता से कोई समझौता नहीं किया।
अब जब रामप्यारे भी काफी बूढ़े हो चले हैं तो तिलक चौधरी के नाती राकेश परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं। राकेश का कहना है कि नाना या पिताजी ने पैसे को कभी तवज्जो नहीं दी, गुणवत्ता को लेकर हमेशा सजग रहे। दुकान का नाम उसी का ईनाम है। अब उस नाम को कायम रखना उनकी जिम्मेदारी है।
नाती राकेश बताते हैं कि उनके नाना तिलक चौधरी ने बर्फी बनाने का काम 1968 में शुरू किया। नकहा जंगल के रहने वाले तिलक लुटेरों से रक्षा के लिए दूध बेचते हुए अक्सर बेटी सवित्री के घर बरगदवां आ जाया करते थे। बरगदवां क्षेत्र में उन दिनों फर्टिलाइजर की वजह से चाय और बर्फी की बिक्री का काफी स्कोप था, सो वह जब भी आते बिकने से बचे दूध की बर्फी और चाय बनाकर बेचते। यह काम वह एक झोपड़ी डालकर करते थे, लेकिन उनकी बर्फी शुद्धता की वजह से कोठी-अटारी वाले लोगों के जुबां पर चढऩे लगी। धीरे-धीरे स्थिति यह हो गई कि उनके यहां ग्राहकों की कतार लगने लगी। कई बार मांग के मुताबिक सप्लाई में भी मुश्किल आने लगी।
बावजूद इसके तिलक इस बात को लेकर संजीदा रहते थे कि कोई उनकी दुकान से खाली हाथ न जाए। तिलक चौधरी बूढ़े हो चले थे और उनका नाम हर कोई जानता नहीं था, इसलिए उनकी ख्याति बढ़ऊ चाचा के नाम से हो गई। धीरे-धीरे बढ़ऊ चाचा की बर्फी बिना किसी प्रचार-प्रसार के एक ब्रांड बन गई। 2001 में जब बढ़ऊ चाचा नहीं रहे तो उनके दुकान की कमान दामाद रामप्यारे चौधरी ने संभाली, लेकिन उन्होंने भी अपने ससुर की साख की खातिर बर्फी की गुणवत्ता से कोई समझौता नहीं किया।
अब जब रामप्यारे भी काफी बूढ़े हो चले हैं तो तिलक चौधरी के नाती राकेश परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं। राकेश का कहना है कि नाना या पिताजी ने पैसे को कभी तवज्जो नहीं दी, गुणवत्ता को लेकर हमेशा सजग रहे। दुकान का नाम उसी का ईनाम है। अब उस नाम को कायम रखना उनकी जिम्मेदारी है।
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