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जलाशयों के किनारों से दूर हुए पारंपरिक धोबी पाट

जासं खानपुर (गाजीपुर) नदियों तालाबों और जलाशयों के किनारे पत्थरों पर कपड़ों को पटकते हुए महिला या पुरुष को धोबीगीत के मधुर धुन के साथ कपड़ों की धुलाई का आंनद अब विलुप्ति के कगार पर है। धोबियों का महत्व हर सांस्कारिक उपक्रमों के अलावा लोकनृत्य संगीत और कुश्तीकला में भी देखने को मिलता था लेकिन समय बदलने के साथ इसमें भी काफी बदलाव आया है। ड्राइक्लीन और वाशिग मशीन के जमाने में अब धोबियों के रोजगार बंद होने के कगार पर है। लोगों के घरों तक जाकर कपड़ों का संकलन करना और उसे रेह की मिट्टी में भिगोने के बाद गधों पर कपड़ों का गट्ठर लादकर नदी घाट तक ले जाकर उसे धोना सुखाना बहुत ही श्रमसाध्य कार्य होता है।

By JagranEdited By: Published: Mon, 29 Jun 2020 04:52 PM (IST)Updated: Mon, 29 Jun 2020 04:52 PM (IST)
जलाशयों के किनारों से दूर हुए पारंपरिक धोबी पाट
जलाशयों के किनारों से दूर हुए पारंपरिक धोबी पाट

जासं, खानपुर (गाजीपुर) : नदियों तालाबों और जलाशयों के किनारे पत्थरों पर कपड़ों को पटकते हुए महिला या पुरुष को धोबीगीत के मधुर धुन के साथ कपड़ों की धुलाई का आंनद अब विलुप्ति के कगार पर है। धोबियों का महत्व हर सांस्कारिक उपक्रमों के अलावा लोकनृत्य, संगीत और कुश्तीकला में भी देखने को मिलता था लेकिन समय बदलने के साथ इसमें भी काफी बदलाव आया है। ड्राइक्लीन और वाशिग मशीन के जमाने में अब धोबियों के रोजगार बंद होने के कगार पर है। लोगों के घरों तक जाकर कपड़ों का संकलन करना और उसे रेह की मिट्टी में भिगोने के बाद गधों पर कपड़ों का गट्ठर लादकर नदी घाट तक ले जाकर उसे धोना सुखाना बहुत ही श्रमसाध्य कार्य होता है। जहां कपड़ों की धुलाई सफाई और रंगरेजी के बाद नदी किनारे घाटों पर फैलाकर सुखाया भी जाता है। ---

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ड्राइक्लीन की ओर आकर्षित हो रहे लोग

सिधौना के नंदलाल कनौजिया कहते है कि साबुन डिटरजेंट के जमाने में रेह से कपड़ों की धुलाई कम हो गयी है। नयी पीढ़ी भी इस व्यवसाय से दूर भाग रही है और बाजारों में कपड़ा प्रेस और ड्राइक्लीन की ओर आकर्षित हो रहे है। रेह वाली जमीनों के पट्टा हो जाने से रेह की मिट्टी निकालना भी दुरूह हो गया है। रेह और कपड़ों के ढोने का काम बंद होने से गधों का पालना भी महंगा पड़ रहा है। धुलाई के गुर सीखने वालों की कमी पड़ गयी है पहले ऊनी और रेशमी वस्त्रों के लिए रीठा और नींबू आदि का इस्तेमाल किया जाता था और कपड़ों को प्रेस करते समय उनमें कड़कपन लाने के लिए गोंद का प्रयोग विशेषज्ञ लोग ही कर पाते थे। मोटे मोटे बिस्तर कंबल चादर सहित कपड़ों को रेह में भींगोकर और फटकारने के बाद जलाशय के घाट पर पटक पटक कर धोना सुखाना फिर प्रेस कर घरों तक पहुंचाने में काफी श्रम और लागत लगाना पड़ता है जिसकी उचित कीमत नहीं मिल पाती है। --------------- -भारतीय संस्कृति और पारिवारिक व्यवसाय के प्रतीक धोबी परंपराओं को पुन: जागृत और बढ़ावा देने की जरूरत है। सरकार को इन धोबियों के लिए घाटों का निर्धारण कर उन्हें जलाशयों के जल की शुद्धता के लिए प्रशिक्षित करना चाहिए।

- डा. परशुराम मिश्र, समाजशात्री।


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