भारत मां के सपूत थे 1942 आंदोलन के योद्धा सीताराम राय
------------- जागरण संवाददाता, भांवरकोल (गाजीपुर) : स्वतंत्रता आंदोलन के
जागरण संवाददाता, भांवरकोल (गाजीपुर) : स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान स्वाधीनता प्राप्ति की ललक इस प्रकार थी की लोग इस आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने को बेताब थे। शेरपुर के युवाओं में यह जोश और भी था। महात्मा गांधी के करो या मरो के नारे से युवा और ही आंदोलित थे। 18 अगस्त 1942 को मुहम्मदाबाद तहसील मुख्यालय पर तिरंगा फहराने के दौरान शेरपुर निवासी भारत मां के आठ सपूत अंग्रेजी सिपाहियों की गोली लगने से शहीद हो गये लेकिन कुछ भारत मां के लाल शहीद तो नहीं हुए लेकिन गंभीर रूप से घायल जरुर हो गए थे। भारत मां के ऐसे ही सपूत थे शेरपुर कला निवासी सीताराम राय। 18 अगस्त 1942 में तहसील मुख्यालय पर तिरंगा फहराने के दौरान सीताराम राय को भी तीन गोलियां लगी थीं बावजूद इसके सीताराम राय जिन्दा बच गये। एक गोली उनके दाहिनी बांह में दूसरी सीने को छीलती हुई निकल गई। जबकि तीसरी गोली उनकी दाहिनी पसली में घुसकर बायीं पसली में जा फंसी जो छह महीने बाद अंग्रेजी अफसरों के आदेश पर कोड़े लगाने वाले जल्लाद की बांह उखाड़ते समय निकल गई। ¨जदा शहीद के नाम से विख्यात सीताराम राय में अदम्य साहस था। बल और बुद्धि का अपूर्व संयोग श्री राय के व्यक्तित्व में साफ दिखता था। वर्ष 1921 में जन्मे इस योद्धा की शैक्षिक यात्रा गांव के प्राथमिक विद्यालय से शुरूहोकर गाजीपुर के सिटी स्कूल तथा वाराणसी के क्वींस कॉलेज वाराणसी के बाद काशी ¨हदू विश्वविद्यालय तक पहुंची। उस समय स्वतंत्रता आंदोलन का बिगुलकाफी पहले ही बज चुका था। गांधी जी के करो या मरो नारे से श्री राय का मन आजादी के लिए उद्वेलित हो उठा। इसके बाद वह गांव आए और गंगा के दियारे से स्वाधीनता का बिगुल फूंकना शुरू किया। 18 अगस्त 1942 को शेरपुर कला स्थित हनुमान मंदिर के पास से तहसील मुख्यालय के लिए डा. शिवपूजनराय के नेतृत्व में कूच करने वाले जत्थे में श्री राय मुख्य भूमिका में रहे। तहसील मुख्यालय पर पहुंचने के बाद साथियों को गोली लग जाने के बाद भी इन्होंने अपना धैर्य नहीं छोड़ा और अंग्रेजी सिपाहियों की बंदूक छीनकर साथियों को दे दिया। इस दौरान अंग्रेजी सिपाहियों ने इनको भी निशाना कर तीन गोलियां दाग दी। चूंकि ये ¨जदा थे इसलिए मजिस्ट्रेट मुनरो ने इन्हें नदी में फेंकने से मना कर दिया। श्री राय भारत मां की लाज बचाने के लिए कड़ी जेल यातनाएं भी सहीं। इनकी जेल यात्रा गाजीपुर से लेकर वाराणसी फतेहगढ़ तथा हरदोई जेल तक रही। हरदोई जेल में अपने साथियों को छुड़ाने के लिएये 39 दोनों तक भूख हड़ताल पर रहे। 1946 में इनकी रिहाई राजनैतिक बंदी के रूप में हुई। आजादी के बाद स्वतंत्र भारत में वाराणसी स्थित जायसवाल नेशनल इंटर कालेज में श्री राय ने शिक्षक के रूप में अपनी सेवाएं शुरू की। शायद नियति ने भारत मां के इस सपूत को ¨जदा शहीद इसलिए बनाए रखाकी यह आने वाली पीढि़यों को स्वतंत्रता आंदोलन तथा 18 अगस्त सन 1942 की महागाथा सुनाते रहें। आजादी के सुबह इन्होंने जिस नैतिक पतन का अनुभव किया शाम होते-होते इस आजादी का क्या होगा यह सोच-सोचकर श्री राय सिहर जाते थे वह अक्सर कहा करते थे चुप हूं अपनी गरज से तुम पत्थर न समझना, मुझ पर असर हुआ है तेरी बात का।' जीवन भर स्वाधीनता आंदोलन और 18 अगस्त 1942 की महा गौरवगाथा सुनाते रहने वाले भारत मां के अमर सपूत सीताराम राय की तीन नवंबर 1998 को वाराणसी से गांव वापस आते समय नंदगंज के पास सड़क दुर्घटना में इहलीला समाप्त हो गई।