जाग रहे 'वोटर', सो रहे हैं जागरूक अफसर
40 साल की राजवती लोहे को पिघलाती हैं और हथौड़े की चोट से मनमाफिक आकार बनाती हैं। मगर वोट की चोट का मौका अब तक नहीं मिला है। हर चुनाव में उम्मीद बंधती है टूट जाती है। वोट की चोट के सपने देखने वाले ऐसे ही 400 लोगों को अब भी उन अफसरों के जागने का इंतजार है जिनके हाथों से न केवल लोकतंत्र के सबसे खास हथियार मतदाता पहचान पत्र का निर्माण होता है बल्कि वे इस चुनाव में वोटर जागरूकता अभियान की कमान भी थामे हुए हैं। 16 सदी में हल्दी घाटी में महाराणा प्रताप के शौर्य के गवाह रहे उनके समर्थक संकट के दौर में निर्वासित जीवन बिताने के लिए बैलगाड़ियों से निकल तो पड़े मगर कभी अपने ठिकानों पर वापस नहीं लौट पाए। अलग-अलग शहरों में सिर छुपाने की जगह पाकर लोहे का काम करने लगे और लोहा-पीटा इनका नाम पड़ गया।
फीरोजाबाद, डॉ. राहुल सिघई। 40 साल की राजवती लोहे को पिघलाती हैं और हथौड़े की चोट से मनमाफिक आकार बनाती हैं। मगर, वोट की चोट का मौका अब तक नहीं मिला है। हर चुनाव में उम्मीद बंधती है, टूट जाती है। वोट की चोट के सपने देखने वाले ऐसे ही 400 लोगों को अब भी उन अफसरों के जागने का इंतजार है, जिनके हाथों से न केवल लोकतंत्र के सबसे खास हथियार मतदाता पहचान पत्र का निर्माण होता है, बल्कि वे इस चुनाव में वोटर जागरूकता अभियान की कमान भी थामे हुए हैं।
16 सदी में हल्दी घाटी में महाराणा प्रताप के शौर्य के गवाह रहे उनके समर्थक संकट के दौर में निर्वासित जीवन बिताने के लिए बैलगाड़ियों से निकल तो पड़े, मगर कभी अपने ठिकानों पर वापस नहीं लौट पाए। अलग-अलग शहरों में सिर छुपाने की जगह पाकर लोहे का काम करने लगे और लोहा-पीटा इनका नाम पड़ गया।
शहर में फ्लाई ओवर के नीचे 13 सालों से बैलगाड़ी पर गृहस्थी सजाए बैठे मुन्नालाल और उनकी जोरू रामबेटी की कहानी राजवती की तरह है। इनके पांच में से चार बेटों की गृहस्थी बस गई, मगर कोई भी वोटर नहीं बन पाया। मुन्नालाल बताते हैं कि भैय्या हम तो विधायक के पास भी गए, उनसे लिखवा लाए, मगर न तो आधार बना और न वोटर कार्ड। वोट कैसे डालते हैं, हम लोग नहीं जानते, मगर वोट डालना जरुर चाहते हैं। शहर में सुहाग नगर, कोटला चुंगी, कोटला रोड पुलिस चौकी के पास समेत आधा दर्जन स्थानों पर डेरा डाल रखा है।
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आंधी पानी सहते हैं..फिर भी बंजारे रहते है. लोहापीटा सूरज की पत्नी कहती है कि साहब, हम इसी देश के हैं, मगर सुबूत देने को कोई तैयार नहीं। न तो बिजली है और न पानी। सड़क पर होने वाली रोशनी के सहारे रात गुजर जाती है और किनारे लगे हैंडपंप से पानी मिल जाता है। यदि हम वोटर होते तो हमें भी ढाई लाख वाला घर मिल जाता। हम तो आंधी पानी सहकर भी रहते हैं।
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हमने तो जब आंख खोली तो खुद को यहीं पाया। गृहस्थी भी बसाई और बच्चे भी हो गए। बताते हैं कि 70 साल पहले दादा आकर बसे थे यहां। वोट का अधिकार नहीं है, इसलिए हमारी गिनती ही नहीं होती। कोई नहीं सुनता साहब गरीबों की। बच्चू सिंह लोहापीटा- फोटो 7
- हम लोग चार सौ से ज्यादा हैं जो वोटर बन सकते हैं। कुछ लोगों के आधार बन गए, मगर हमारा नहीं बना। कई बार डाकखाने गए, वहां से भगा दिया गया। हमने तो उम्मीद छोड़ दी है।
सूरज लोहापीटा--फोटो 10