छतों से लग रहे थे नारे, सड़कों पर जश्न
जागरण संवाददाता, फर्रुखाबाद : आजादी नाम का शब्द ही सुखद अहसास कराने वाला था। अंग्रेजों की
जागरण संवाददाता, फर्रुखाबाद : आजादी नाम का शब्द ही सुखद अहसास कराने वाला था। अंग्रेजों की बेड़ियां तोड़कर खुली हवा में सांस लेने के लिए सभी बेकरार थे। 14 अगस्त की रात 12 बजे जैसे ही आजादी का एलान हुआ, शहर में लोग छतों पर चढ़कर भारत माता की जय के नारे लगाने लगे। युवा नाचते-गाते गलियों और सड़कों पर आ गए। रातभर जश्न का माहौल रहा। इसके बाद हुई सुबह बड़ी अजीब थी, हर शख्स एक दूसरे को देख कर मुस्कुरा रहा था। ये आजाद भारत की पहली सुबह थी।
आजादी की पहली सुबह का जिक्र सुनते ही गोवा मुक्ति आंदोलन के अगुआ 86 साल के कैसर खान की चश्मे के पीछे से झाकती आंखों की चमक अचानक बढ़ जाती है। उनकी यादों का पिटारा कुछ यूं खुलता है कि जैसे कल की ही बात हो। बोले, क्या पूछते हो बेटा! अजब नजारा था। हर शख्स जोश व उम्मीद से लबरेज। रेडियो व ट्रांजिस्टर उतने आम नहीं थे, जितने अब टीवी या मोबाइल हैं। लोग छतों पर चढ़कर भारत माता की जय के नारे लगा रहे थे। आजादी की घोषणा के साथ ही ढोल-नगाड़ों की थाप पर युवा सड़कों पर थिरक कर बधाई दे रहे थे। 1947 में देश की आजादी के दौर में कैसर खां जवानी की दहलीज पर कदम रख रहे थे। 16 साल की उम्र में सियासी समझ भले ही कम रही हो लेकिन जोश भरपूर था। गोवा को पुर्तगालियों से आजाद कराने के राम राममनोहर लोहिया के आह्वान के बाद 1955 में कैसर खां ने गोवा मुक्ति आंदोलन में भाग लेने को घर छोड़ दिया। 19 दिसम्बर 1961 गोवा की आजादी के बाद ही वह घर लौटे। गोवा मुक्ति आंदोलन में उनके साथी रहे शहर के राधेश्याम शर्मा, रामचंद्र गुप्ता और देवीदयाल शर्मा अब इस दुनिया में नहीं हैं। जीवन भर कामरेड रहे कैसर खां ने जरदोजी और छपाई मजदूरों के हक के लिए कई लड़ाइयां लड़ीं। उन्हें अब भी कोई गंभीर रोग तो नहीं है, हां उम्र का बोझ सेहत पर भारी पड़ने लगा है।