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गांधी के चरखे से साकार हो रहा ग्राम स्वराज

गांधी और उनके चरखे को भले ही लोग गुजरे जमाने की बात कहते हों लेकिन आधुनिकता के इस दौर में भी गांव बरिया नगला के लोग गांधी के चरखे को मजबूती से थामे हैं। जिला मुख्यालय से लगभग तीस किलोमीटर दूर गांव बरियानगला में करीब 35 परिवार अभी भी हैंडलूम पर कपड़ा तैयार करने व इसे बेच कर खुशहाली का परचम लहरा रहे हैं। बरियानगला में बने चादरें बेडशीट अंगौछा आदि खूब बिकते हैं।

By JagranEdited By: Published: Tue, 01 Oct 2019 11:04 PM (IST)Updated: Wed, 02 Oct 2019 06:21 AM (IST)
गांधी के चरखे से साकार हो रहा ग्राम स्वराज
गांधी के चरखे से साकार हो रहा ग्राम स्वराज

नोट : जिला उद्योग केंद्र के महाप्रबंधक का वर्जन बाद में भेजा जाएगा। ---------------------

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बृजेश मिश्रा, फर्रुखाबाद

गांधी के चरखे को बेशक लोग गुजरे जमाने की बात कहें, लेकिन आधुनिकता के इस दौर में गांव बरिया नगला ग्राम स्वराज के सपने को साकार कर रहा है। जिला मुख्यालय से तकरीबन तीस किमी दूर इस गांव के 35 से ज्यादा परिवार आज भी चरखे से ही कपड़ा बुनते हैं। यहां बनी चादें, बेडशीट, अंगौछा आदि की विभिन्न शहरों में बड़ी मांग है।

कमालगंज ब्लाक की ग्राम पंचायत रजीपुर के 500 की आबादी वाले मजरे बरियानगला में कपड़ा का पुश्तैनी काम है। इस गांव के तकरीबन 2 सैकड़ा से अधिक लोगों ने गांधी जी के चरखे को ही रोजी-रोटी का साधन बना रखा है। यहां तैयार होने वाले तौलिया, गद्दे के लिहाफ, चादर, दरी आदि कपड़े स्थानीय बाजार के अलावा लखनऊ, मेरठ, सीतापुर समेत प्रदेश और देश के अन्य शहरों में भेजे जाते हैं। कपड़ा बुनाई का काम करने वाले भारत नरेश बताते हैं कि यह हमारा पुश्तैनी काम है। इसे कभी नहीं छोड़ सकते। यहां तैयार होने वाले कपड़ों की बहुत मांग है। सिर्फ इसी गांव में नहीं बल्कि खजरिया नगला, रजीपुर आदि गांवों में भी चरखे पर ही कपड़े बुने जाते हैं। सभी ने मिलकर भारतीय हैंडलूम औद्योगिक उत्पादन सहकारी समिति का गठन भी किया है। इसमें दो सौ सदस्य है, जिनमें महिलाओं की संख्या 40 है। गांव की महिला सावित्री देवी, कृष्णा देवी, शांती देवी, रूपवती और मायादेवी बताती हैं कि वह घरेलू कामकाज निपटाने के बाद चरखा चलाती हैं। कुछ महिलाएं तो हैंडलूम मशीनें भी चलाने में दक्ष हैं। समिति के अध्यक्ष गिरीश चंद्र बताते हैं कि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने बुनकरों के हित की बात करते हुए रुई के निर्यात पर रोक लगा दी थी, लेकिन बाद में इसका निर्यात शुरू हो गया। इसी कारण रुई महंगी मिलती है। हालांकि सरकार ने अब फिर से मदद देना शुरू कर दिया है।

बड़े-बड़े शापिग माल में बिकते हैं डस्टर

घरों में पोछा लगाने, सफाई करने में प्रयोग होने वाले पोंछा (डस्टर) भी यहां तैयार किए जाते हैं। रजीपुर में डस्टर खूब तैयार किए जाते हैं। इनकी सप्लाई परोक्ष रूप से कानपुर, लखनऊ जैसे शापिग मालों में भी की जाती है।


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