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रामनगरी भी आप्लावित है श्रीचंद की सुगंध से

अयोध्या : गुरुनानक जैसे महान पिता की संतान और उदासीन परंपरा के प्रवर्तक प्रखर आचार्य के रूप

By JagranEdited By: Published: Tue, 18 Sep 2018 12:09 AM (IST)Updated: Tue, 18 Sep 2018 12:09 AM (IST)
रामनगरी भी आप्लावित है श्रीचंद की सुगंध से
रामनगरी भी आप्लावित है श्रीचंद की सुगंध से

अयोध्या : गुरुनानक जैसे महान पिता की संतान और उदासीन परंपरा के प्रवर्तक प्रखर आचार्य के रूप में श्रीचंद्र के आभामंडल का आलोक वैश्विक था। संवत 1551 की भाद्र शुक्ल पक्ष नवमी को सुदूर पंजाब प्रांत के कपूरथला में जन्म हुआ था। उस जमाने में जब यातायात और संचार के साधन मौजूदा गति से कोसों दूर थे, तब भी न केवल श्रीचंद की सुगंध अयोध्या तक पहुंची बल्कि उनकी परंपरा को रामनगरी में स्थाई ठौर मिला। इसका श्रेय बाबा संगतबख्श को जाता है।

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संगतबख्श उदासीन परंपरा के प्रवर्तक आचार्य श्रीचंद की नौवीं पीढ़ी के थे और उनका समय सन 1700 से 1775 माना जाता है। हालांकि सन 1629 में ब्रह्मलीन श्रीचंद एवं संगतबख्श के काल में बहुत फासला नहीं था और गुरु परंपरा से प्राप्त जिस आध्यात्मिक दिव्यता के साथ संगतबख्श अयोध्या पहुंचे थे, उस पर उदासीन परंपरा के प्रवर्तक आचार्य की चटख छाप होने से इंकार नहीं किया जा सकता। संगतबख्श उन बाबा सहजराम के शिष्य थे, जिन्हें श्रीचंद जैसे दिव्य-दैवी चेतना से ओत-प्रोत आचार्य की छाया के और करीब रहने का अवसर मिला था। सहजराम के गुरु बाबा धुन्नूराम आचार्यों की उस शीर्ष टोली के सदस्य थे, जिसमें बाबा फतेहचंदराम, बाबा हरमुकुंद, बाबा तुलाराम, बाबा टीकाराम, बाबा भगत भगवान सरीखे श्रीचंद के अत्यंत करीबी-कृपापात्र आध्यात्मिक उत्तराधिकारी शामिल थे। यह दौर आला आध्यात्मिक हस्तियों वाले योगियों का था, जो आत्मिक संकल्प एवं यौगिक प्रक्रिया के माध्यम से अति मानवीय एवं चमत्कारिक शक्तियों से युक्त थे।

यहां तक मान्यता है कि संगतबख्श ने अपने गुरु सहजराम की आज्ञा के बिना एक मृत बालक को ¨जदा कर दिया था और गुरु ने इसे शिष्य की मर्यादा का उल्लंघन मानकर उससे मुंहमोड़ लिया था। इसके बाद ही संगतबख्श सुलतानपुर जिला के बधुआ स्थित गुरु आश्रम छोड़कर रामनगरी के उस स्थल पर आए, जहां उदासीन ऋषि आश्रम स्थित है। यद्यपि गुरु के रुख से विचलित संगतबख्श ने स्वयं को चमत्कार से सर्वथा दूर रखा पर फूल खिलने पर सुगंध फैल ही जाती है और साधना में पगे संगतबख्श की रूहानी शख्सियत का जलवा अफरोज हुए बिना नहीं रह सका। हालांकि उनकी आस्था के केंद्र में वे बाबा श्रीचंद थे, जिन्होंने एक भरी-पूरी परंपरा को आध्यात्मिक उपलब्धि का प्रसाद उपलब्ध कराया था। उदासीन आश्रम का परिसर पांच सौ बीघा में है और मंदिर में अनेक आचार्यों की प्रतिमाएं स्थापित हैं पर आस्था के केंद्र में श्रीचंद ही हैं। उदासीन आश्रम के वर्तमान महंत डॉ. भरतदास अपने आद्याचार्य श्रीचंद को गोरख-पतंजलि जैसे सनातन परंपरा के आप्तकाम ऋषियों की कोटि में रखते हैं।


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