सरयू तीरे
बधाई के बहाने.. -इन दिनों बधाई की बहार है। आमना-सामना होते ही बधाई के आदान-
बधाई के बहाने..
-इन दिनों बधाई की बहार है। आमना-सामना होते ही बधाई के आदान-प्रदान का सिलसिला चलने लगता है और यदि प्रत्यक्ष होने की मोहलत नहीं मिली तो बधाई के लिए फोन की घंटी घनघनाने लगती है। अमूमन हाशिए पर रहने वाले रामबोला के लिए बधाई पाना तो दुर्लभ अवसर की तरह है। भले ही वह किसी बात के लिए हो पर रामबोला का माथा तब ठनका, जब बधाई के बाजार में कुछ ऐसे भी लोग आए जो बधाई से मुकाबिल होते ही झेंपते-शरमाते नजर आए। रामबोला से नहीं रहा गया तो उसने बधाई की वजह जानने की कोशिश की। पता लगा कि एक नया आदेश आया है, जो मानवीय स्वतंत्रता को नया आयाम प्रदान करने वाला है। ..तो फिर किस बात की झेंप। रामबोला ने खूब कसरत की पर यह पहेली नहीं सुलझी।
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बेचारे नेताजी
-सियासत का भी अजब शगल है। ताकत हो तो समस्या न हो तो समस्या। जिले से लेकर सूबे की सियासत में एक कद्दावर नेता के रूप में अपनी मौजूदगी दर्ज कराते रहे एक नेता आजकल खामोशी की दहलीज पर हैं। सूबे में सियासत की सूरत क्या बदली, उनकी सक्रियता भी सिमट सी गई। यही नहीं बीती सरकार में कराए गए उनके कामों को सत्ता दल के एक माननीय ने हाईजैक कर लिया। नाम से लेकर बोर्ड तक बदल गए पर नेताजी अपना दर्द कहीं भी तो किससे। निजाम भी अब साथ नहीं। ऐसे में नेताजी सूबे में सियासत की सूरत बदलने के इंतजार में खामोश हो चले हैं। इसीलिए कहा गया है कि रहिमन चुप ह्वै बैठिए दिखि दिनन के फेर। ------------
सभापतिजी का 'हजरतगंज'
-शहर के लाजपतनगर चौराहे को इन दिनों नया नाम मिला हुआ है। जिससे पूछ कहां जा रहे हो, बस एक ही जवाब मिलता है, सभापतिजी के हजरतगंज तक। 'रामबोला' ने यह सुना तो थोड़ा अचरज में पड़ गया। रहा न गया तो 'रामबोला' ने एक मित्र से पूछ ही लिया कि ये सभापतिजी का हजरतगंज कहां हैं। मित्र ने जवाब दिया
सभापतिजी का 'हजरतगंज' कहीं और नहीं, बल्कि लाजपतनगर चौराहा है। 'रामबोला' ने अपने मित्र से सभापतिजी के हजरतगंज की खासियत पूछी तो भाई साहब रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे। रामबोला ने काफी देर तक हां में सिर हिलाया तो जाकर बड़ी मुश्किल से पीछा छूटा। अगले दिन 'रामबोला' ने सभापति जी को फोन कर पूछा कहां मुलाकात होगी, तो सभापतिजी ने भी तुरंत कहा, आइए हजरतगंज.।
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भाग रे भाग.. पुलिस
-फैजाबाद दो दिन पहले की बात है। सरयू का किनारा था। हवाएं मनोरम और सरयू नदी उफनाकर बह रही थी। शांत माहौल में अचानक कुछ युवा भागते हुए सामने से गुजरे..। एक पल को लगा कि कोई मारपीट हो गई..। लेकिन उनके पीछे देखा तो हक्का- बक्का रह गया। कुछ महिलाएं पैदल चाल से चल रही थीं, जिन्हें देख बड़ी संख्या में पुरुष घोड़े की तरह दौड़ रहे थे। पता किया तो मालूम पड़ा कि इन दिनों शहर में आशिकों की शामत दस्ता सक्रिय है। ये बात अलग है कि दस्ता बागों में घूम रहा है, और मनचले राहों में हैं। फिर भी पुलिस की मर्दानियों के आगे युवाओं का पसीना छूट रहा है। बेचारे युवाओं को बाग में भी सकून नहीं मिल रहा है। कब चार-छह महिलाएं, जिनमें कुछ वर्दी धारी हैं, घेर लें और फजीहत शुरू हो जाए कहा नहीं जा सकता है। फिलहाल जैसी करनी वैसी भरनी। गुनाह किसी का और भोग रही पूरी पुरुष प्रजाति..। दस्ता देखते ही भाग रे भाग पुलिस के अलावा कुछ सुनाई नहीं पड़ता है।
-रामबोला