टेसू-झेंझी के खेल से बरकरार समरसता का मेल
रामू काका रामराम, टेसू आए हैं। कुछ इसी तरह के शब्द कहते-कहते काका की चौपाल पर बच्चों का हुजूम और फिर टेसे-झेंझी के गीत गूंजने लगते।
जागरण संवाददाता, एटा: रामू काका रामराम, टेसू आए हैं। कुछ इसी तरह के शब्द कहते-कहते काका की चौपाल पर बच्चों का हुजूम और फिर टेसू-झेंझी के गीत गूंजने लगते। बच्चों की टोली में बालक-बालिका दोनों ही शामिल होते। लड़कों के हाथ टेसू और बालिकाएं झेंझी में दीपक सजाए इस बात का इंतजार करते कि काका कुछ न कुछ उपहार सभी बच्चों को जरूर देंगे। दशहरा से शरद पूर्णिमा तक कुछ इस तरह के नजारे जिले के गांव-देहात और कस्बाओं में टेसू-झेंझी के खेल के साथ दिखते नजर आएंगे।
समय के बदलाव के साथ पुरानी परंपराएं आज भी यहां प्रचलित हैं। बृजक्षेत्र खासकर एटा जैसे जिले में टेसू-झेंझी का खेल दशहरा से ही शुरू होता है। यह खेल भले ही बच्चों के मनोरंजन का माध्यम हो, लेकिन इस खेल में आज भी सामाजिक समरसता का भाव बरकरार बना हुआ है। खेल में शामिल होने वाले बच्चों का समाज के लोगों से मेल-मिलाप बढ़ता है। वहीं उन में बड़ों के प्रति अभिवादन की आदत और उनसे झिझक दूर होती है। यहां जाति-पांति का भेद भी काफी हद तक दूर होता नजर आता है। हालांकि उच्च वर्ग के बच्चे सिर्फ टेसू-झेंझी को अपने घर के शोकेसों में सजाने तक सीमित हों, लेकिन कस्बा और ग्रामों में इसको लेकर बच्चे घर-घर दस्तक देते देखे जा सकते हैं। ऐसे शुरू हुई परंपरा
बड़े बुजुर्ग बताते हैं कि टेंसू-झेंझी की परंपरा महाभारत काल से शुरू हुई। जानकार मानते हैं कि एक राक्षस ब्राह्मण की लड़की को पसंद करता था और उसने विवाह का प्रस्ताव रखा। पर ब्राह्मण इस रिश्ते को नहीं चाहता था, इसलिए उसने राक्षस से कहा कि 15 दिन बाद उसके घर-खानदान के लोग आ जाएं तब विवाह करेगा। लेकिन यह समय बीत गया और परिवारीजन नहीं आए। राक्षस फिर ब्राह्मण के पास पहुंचा और शादी कराने को कहा। इस पर ब्राह्मण ने कहा कि अभी नौ दिन उसकी पुत्री गौरा बनाकर खेलेगी। यह समय भी बीत गया, राक्षस ने फिर दबाव बनाया तो ब्राह्मण ने कहा कि राक्षस और उनकी बेटी पांच दिन तक भिक्षा मांगे तब विवाह होगा। इस पर राक्षस टेसू बना और ब्राह्मण की बेटी झेंझी। पांच दिन बीत गए तब राक्षस फिर आया, लेकिन ब्राह्मण के परिजन नहीं आए इसलिए विवाह शुरू कर दिया। साढ़े तीन फेरे ही पड़े थे कि ब्राह्मण के परिवार वाले आ गए और उन्होंने राक्षस और बेटी दोनों को मार दिया, क्योंकि बेटी भी राक्षस से प्रेम करती थी। तभी से इस प्रेम कहानी को लेकर टेसू-झेंझी के विवाह की परंपरा पड़ी। महाभारत में भी इसका उल्लेख मिलता है। कुंभकारों को मिल जाता अच्छा रोजगार
टेसू-झेंझी के खिलौने परंपरा से जुड़े हों, लेकिन इनसे तमाम कुंभकार परिवारों के लिए कुछ समय का रोजगार मिल जाता है। जिले में 150 परिवार दशहरा से पहले टेसू-झेंझी तैयार करने में जुटते हैं। प्रतिनग 15 से 40 रुपये तक बिक्री होती है। ऐसे होता टेसू-झेंझी का खेल
टेसू बालक और झेंझी बालिकाओं का खिलौना होता है। जिसमें प्रकाश कर बच्चों की टोली घर-घर पहुंचती हैं। संबंधित परिवार से उपहार की उम्मीद की जाती है और लोग बच्चों को पैसे, खाने-पीने की वस्तुएं या अपनी क्षमता के अनुरूप उपहार देते हैं। आयोजन में व्यवस्थाओं के लिए बड़े बुजुर्ग भी शामिल होकर आनंदित होते हैं।