छलक उठा बंटवारे का दर्द, जान बच गई .. जड़ें उखड़ गई
बंटवारे के बाद 15 अगस्त 1947 को भारत और पाकिस्तान दो नए स्वतंत्र राष्ट्र घोषित किए गए। लेकिन नक्शे पर आए नए मुल्क की कीमत आवाम ने चुकाई। लाखों लोग रातोंरात बेघर हो गए और अपने पुरखों की सदियों से जमी जड़ें और जमीन के साथ जिगरी यारों को छोड़कर भागना पड़ा। कुछ अपने रास्ते में खो गए जबकि कुछ बिछड़कर गायब हो गए। बुलंदशहर में भी ऐसे करीब डेढ़ सौ परिवार हैं जिन्होंने सात दशक पहले हुए बंटवारे की कीमत बहुत कुछ खोकर अदा की थी।
बुलंदशहर, जेएनएन। बंटवारे के बाद 15 अगस्त 1947 को भारत और पाकिस्तान दो नए स्वतंत्र राष्ट्र घोषित किए गए। लेकिन नक्शे पर आए नए मुल्क की कीमत आवाम ने चुकाई। लाखों लोग रातोंरात बेघर हो गए और अपने पुरखों की सदियों से जमी जड़ें और जमीन के साथ जिगरी यारों को छोड़कर भागना पड़ा। कुछ अपने रास्ते में खो गए, जबकि कुछ बिछड़कर गायब हो गए। बुलंदशहर में भी ऐसे करीब डेढ़ सौ परिवार हैं जिन्होंने सात दशक पहले हुए बंटवारे की कीमत बहुत कुछ खोकर अदा की थी।
पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के जिला गुजरात के गांव लसूड़ी में पैदा हुई शरणकौर अब अपनी आयु के नौवें दशक में पहुंच चुकी है और फिलहाल बुलंदशहर के पंजाबी बाग में रहती हैं। जिक्र बंटवारे का होता है तो आंखे दर्द भरे यादों के समंदर में डूब जाती है। कुरेदने पर शरणकौर बताती हैं कि कैसे उन्हें रातोंरात घर छोड़कर भाग जाने के लिए कह दिया गया था, कैसे कुएं के पानी में जहर मिलाकर उनके नाते-रिश्तेदारों को मार दिया गया था। गांव में पांच सौ बीघा जमीन और हवेली को ऐसे ही छोड़ दिया गया। रात में जान बचाकर अपने नाना की मदद से ट्रेन में सवार होकर हरियाणा के कुरुक्षेत्र तक पहुंचे और बरसों तक बिखरी और बदहवास जिदंगी को समेटने में बीत गए। कुछ ऐसी ही कहानी वर्तमान में खुर्जा की पंचवटी कालोनी में रहने वाले सत्यपाल गुलाठी की भी है। गुलावठी बताते हैं कि तब में मात्र पांच साल का था और मालगाड़ी में छिपकर हम अपने परिवार के साथ पाकिस्तान स्थित झेलम जिले के गांव सरोबा से आए थे। रास्ते में दंगाईयों ने मालगाड़ी को रोक लिया और पिता नगरबसाएं सिंह की हत्या कर दी। मां ने मुझे बचाने के लिए पिता के शव के नीचे छिपा दिया था।
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भेष के साथ बदले केश
बंटवारे के दौरान हुए दंगों में मची मार-काट से बचने के लिए पंजाबी समाज ने अपनी भेषभूसा के साथ केश भी बदल दिए थे। पंजाबी बाग निवासी दलजीत बताते हैं कि हम नहीं जानते कि बंटवारे से किसको क्या मिला, लेकिन लोगों की जड़ें उखड़ गई, जमीन छीन ली गई, जिदंगी तबाह हो गई, बस सरहद पार होने से जान बच गई।
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हम हिदुस्तानी थे और हैं..
सत्यपाल गुलाठी बताते हैं कि बंटवारे ने जो दर्द दिया उसकी दवा भारत में मिली। हम रिफ्यूजी नहीं हैं। हम भारत के नागरिक हैं। उधर, तत्कालीन सरकार ने बुलंदशहर में बंटवारे के दौरान सरहद पार से आए लोगों को बसाने और उन्हें आगे बढ़ाने के लिए काली नदी रोड सुभाष बाजार की स्थापना कर 48 दुकानें बनाकर दी थी। आज भी इस मार्केट को लोग सुभाष शरणार्थी मार्केट के नाम से जानते हैं।