घर से पैसे मंगा गांव लौटने को हुए मजबूर
कंपनी की तरफ से 15 से 20 दिन ही मिले भोजन
बस्ती : यकीन मानिए, इन दिनों राजमार्ग से लेकर संपर्क मार्ग तक बेबस जिदगी का कारवां लंबा है। मुंबई, गोवा, बंगाल, दिल्ली, नासिक आदि महानगरों से आने वाले लाचार मजदूरों की यात्रा वृतांत कहीं से सुकून नहीं पहुंचा रही है। किसी के पास खाने का पैसा नहीं तो किसी के पास किराया नहीं। घरों से पैसा मंगाकर लोग अपने गांव को लौट रहे हैं। शहर के बड़ेवन चौराहे पर मंगलवार को पुणे से आए देवरिया जनपद और बिहार के सिवान जनपद के प्रवासी मजदूरों का एक जत्था मिला। उनकी यात्रा वृतांत किसी पहाड़ जैसे दुख से कम नहीं।
सभी के एक बोल-परदेश में एक दिन, दो दिन हो तो ठीक। पूरे 60 दिन गुजर गए और हर दिन संकट बढ़ता ही गया। ऐसे में जान की परवाह कहां। बस घर पहुंचने की फिकर है साहब। सबकी हालत एक जैसी। जेब खाली है। मुफलिसी, फांकाकसी, मुसीबत, बीमारी सब साथ है। पग-पग की दूरी पर चुनौती है। रास्ते में ट्रक, ट्रैंकर पर चढ़ते-उतरते, तो कभी सड़क पर पैदल चलते शरीर थकान से अकड़ चुकी हैं। उदर की भूख से मन अशांत है। पांव बोझिल है। निचाट हाईवे पर चिलचिलाती धूप तमाचे से कम नहीं है। फिर भी अपने मुकद्दर को कोसते हुए घर की ओर बढ़ रहे हैं अनगिनत प्रवासी मजदूर।
सिवान के शंभू यादव ने बताया कि पुणे के एक सुगर मिल में काम करते थे। लॉकडाउन के बाद बस 15-20 दिन तक ही कंपनी की ओर से भोजन मिला। इसके बाद बचत के पैसे से कुछ दिन और गुजारा किए। किराया नहीं बचा। घर से पैसा मंगाना पड़ा। ट्रक, टैंकर से यहां तक पहुंचे हैं। देवरिया के श्याम बहादुर, अशोक कुमार, सुरेंद्र पटेल की भी दुश्वारियां ऐसे ही थी। बताया कि रास्ते में कुछ दानवीरों ने लंच पैकेट चलते वाहन पर पकड़ा दिए थे। उसी के भरोसे रास्ता कटा। लू के थपेड़ों से रास्ते में मुंह सूख जा रहे हैं। प्रशासन ने इनकी शेष यात्रा के लिए सवारी सुलभ कराने से हाथ खड़े कर दिए। लाचार मजदूर 15 की संख्या में एक आटो बुक करके फिजिकल डिस्टेंसिग का पालन किए बगैर आगे के लिए रवाना हुए।