चुनाव में जनप्रतिनिधियों से पूछे जाने चाहिए काम को लेकर सवाल
जागरण संवाददाता बरेली देश का हर चुनाव सामाजिक आर्थिक दृष्टिकोण से सुधार की उम्मीद पै
जेएनएन, बरेली : देश का हर चुनाव सामाजिक, आर्थिक दृष्टिकोण से सुधार की उम्मीद पैदा करता है। सरकारें बन जातीं। पांच साल में अगर सुधार नहीं होता, तो यह नहीं कह सकते कि पिछली सरकारों में भी तो कुछ नहीं हुआ। जनता बदलाव की भावना से नई सरकार चुनती है। बदलाव नहीं होने पर उसकी सार्थकता पूरी नहीं होती। इसलिए हर चुनाव में जनता को वोट मांगने वाले जनप्रतिनिधियों से सवाल करना चाहिए कि उनके मूल मुद्दे चुनाव में क्यों नहीं शामिल होते? इन्हें घोषणा पत्र में क्यों जगह नहीं मिलती? लोकतंत्र में जनता ही जर्नादन है। सुधार की ताकत उसी में निहित है। जनता मौन रहेगी तो सुधार संभव नहीं है। सोमवार को जागरण विमर्श में अतिथि बरेली कॉलेज के विधि विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. प्रदीप कुमार जागर ने चुनाव के असली मुद्दों पर अपना नजरिया पेश करते हुए यह बातें कहीं।
डॉ. प्रदीप कुमार का मानना है कि राजनीतिक दल-जनप्रतिनिधियों की जवाबदेही तय हो कि चुनाव में जनता से जो वादे करेंगे उन्हें पूरा करना होगा। दूसरा, सिस्टम में सुधार के लिए प्रशासनिक व्यवस्था में बड़े बदलाव करने की जरूरत है ताकि संसद में जो कानून-योजनाएं बनें, उसका लाभ जरूरतमंदों तक पहुंच सके। मतदाताओं को समझना होगा कि जाति, धर्म, भावना के बजाय अपनी समस्या को आगे रखें। जनता की चेतना सरकार को सजग करने पर विवश कर सकती है।
इन मुद्दों पर हो बात
शिक्षा का स्तर नीचे गिरता जा रहा है। उच्च शिक्षा से लेकर स्कूलों तक स्थिति बदहाल है। स्कूलों में शिक्षक नहीं, कॉलेजों में बच्चे नहीं आते। सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं का बुरा हाल है। डॉक्टरों के साथ संसाधनों की कमी है। देश की बड़ी आबादी सरकारी शिक्षा-स्वास्थ्य सेवा से सीधे जुड़ी है। निजी शिक्षा-स्वास्थ्य क्षेत्र में भी जनमानस को शोषण होता। महंगाई अलग। इसलिए इसमें तत्काल सुधार की जरूरत है।
पर्यावरण क्यों नहीं बनता मुद्दा
देश में हर सैकड़ों लोगों की मौत का कारण प्रदूषण है। ये कभी चुनावी शक्ल नहीं लेता। नदी-तालाब, जंगल पर कभी बात नहीं होती। जबकि ये हर इंसान की जिंदगी से जुड़े हैं। प्रदूषण इंसानी सभ्यता के लिए सबसे बड़ी चुनौती के रूप में उबर रहा है।
निजी कंपनी की तरह लें फीडबैक
निजी कंपनियां अपने ग्राहकों से सेवा का फीडबैक लेती हैं। सरकारें ऐसा क्यों नहीं कर सकती? वजह स्पष्ट है। कंपनी अपने ग्राहक को संतुष्ट करना चाहती हैं, वो सुधार की नीयत रखती है। जबकि सरकारों को जनता की समस्या-सुधार से कोई सरोकार नहीं होता।
किसान-मजदूर सब दरकिनार
डॉ. प्रदीप के मुताबिक, किसान कड़ी मेहनत से अनाज पैदा करता। 70 साल में उनके अनाज के भंडारण का बंदोवस्त नहीं कर पाए। अनाज का सही मूल्य नहीं मिलता। किसानों को समय पर भुगतान नहीं होता। असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं है। सार्वजनिक राशन वितरण प्रणाली से गरीब जुड़े हैं। उसमें भ्रष्टाचार की दीमक लगी है।
पुलिस को स्वायत्ता की दरकार
डॉ. प्रदीप कहते हैं, पुलिस महकमे में सबसे ज्यादा सुधार की जरूरत है। आज भी 1860 के पुलिस कानून से हम शासित हो रहे हैं। 2006 में पुलिस स्वायत्ता का मामला कोर्ट पहुंचा था। न्यायपालिका में करीब तीन करोड़ केस पेंडिंग पड़े हैं। सालों केस चलते हैं। समय पर फैसला न होने से जनता हताश होती है। बैंकों पर एनपीए का बोझ बढ़ रहा।
यातायात-सफाई पर सजगता जरूरी
सार्वजनिक यातायात व्यवस्था सुधारी जाए। सड़कें सही हों। साफ-सफाई, कूड़ा निस्तारण, वाटर ट्रीटमेंट प्लांट जैसी मूलभूत समस्याओं पर बात हो। कुल मिलाकर जनमानस अपने-देश के विकास के लिए सजग रहे। सवाल पूछने का साहस करें। ऐसा होगा, तभी धीरे-धीरे सुधार भी होने लगेगा।