Intresting : देशभक्ति और सौहार्द का प्रतीक है नवाब साहब की ये कोठी Bareilly News
चक महमूद स्थित नवाब साहब की कोठी सिर्फ नवाब साहब के परिवार का आशियाना मात्र ही नहीं है बल्कि यह देशभक्ति संग सांप्रदायिक सौहार्द का भी प्रतीक है।
अविनाश चौबे, बरेली : शहर में कुछ इलाकों से गुजरते हुए यहां बरसों से शान से सिर उठाए खड़ी आलीशान कोठियां बरबस ही अपनी ओर ध्यान खींचती हैं। खूबसूरत मेहराब, नक्काशीदार कंगूरे और इनका अनूठा वास्तुशिल्प बीते हुए कल को एकबारगी आंखों के सामने जीवंत कर देता है। ऐसी ही आलीशान कोठियों के अतीत और वर्तमान के रोचक किस्सों से आपको परिचित कराएंगे। पहली कड़ी में प्रस्तुत है 'नवाब साहब की कोठी' की दास्तान।
शहर के चक महमूद इलाके में स्थित नवाब साहब की कोठी आज भी लोगों की उत्कंठा जगाती है। इसके विशाल द्वार के सामने से गुजरते हुए बरबस ही निगाहें भीतर कोठी की भव्यता देखने को उत्सुक हो उठती हैं पर सबके हाथ निराशा ही लगती है क्योंकि करीब 15 हजार वर्ग गज क्षेत्रफल में बनी कोठी के चारो ओर बनी चारदीवारी के भीतर देख पाना संभव नहीं। जब तक आप 30 फीट ऊंचे मुख्य द्वार के भीतर दाखिल न हों, इस कोठी की भव्यता का अंदाजा भी नहीं लगा सकते। कोठी में घुसते ही भीतर का नजारा देखकर लगता है मानो बीता हुआ शानदार कल सामने आकर ठहर गया हो।
ब्रिटिश आर्किट्रेक्चर के साथ मुगल शिल्प
वर्ष 1880 में नवाब शहादत वली खां ने इस कोठी की नींव रखी। इनके बेटे शहंशाह वली खां ने 1912 में इस आलीशान कोठी की तामीर का काम पूरा कराया। शहंशाह वली खां के पौत्र और नवाब सरताज वली खां के बेटे मोअज्जम सरताज उर्फ गुड्डू जो इस कोठी के सरपरस्त हैं, बताते हैं कि पूरी कोठी सुर्खी-चूने से बनी है। पूरी कोठी बनने में 30 साल से अधिक का वक्त लगा। कोठी का निर्माण उस दौर के मशहूर कारीगर अल्लाह बख्श ने किया। उन्होंने बताया कि अल्लाह बख्श और उनके भाइयों ने शहर की अन्य आलीशान कोठियों की भी तामीर की। कोठी के वास्तुशिल्प में ब्रिटिश आर्किटेक्चर और मुगलिया शिल्प कला का अद्भुत मेल दिखता है।
जगतपुर पुलिस चौकी के पीछे बने ईंट भट्ठे
लगभग 15 हजार वर्ग गज में बनी कोठी के निर्माण के लिए काफी तदाद में सुर्खी चूने और ईंटों की जरूरत थी। उस दौर में आसपास में इसकी व्यवस्था नहीं थी, तो नवाब साहब यानी शहंशाह वली खां ने वर्तमान की जगतपुर पुलिस चौकी के पीछे सुर्खी-चूने और ईंट के भट्ठे बनवाए। यहां सिर्फ कोठी के लिए ईंटें बनाई जाती थीं। कोठी के मुख्य हिस्से के पीछे महिलाओं के रहने के लिए अलग से स्थान बना था जो आज भी है।
अफगानिस्तान से मंगवाया था काला पत्थर
कोठी के मुख्य हॉल और डायनिंग हॉल में सफेद और काला पत्थर लगा है। बताते हैं कि यह पत्थर उस समय सिर्फ अफगानिस्तान में मिलता था। चूंकि नवाब सरताज वली खां का परिवार मूलरूप से अफगानिस्तान के सीमावर्ती इलाके का निवासी था, इसलिए उन्होंने अफगानिस्तान से ही यह काला पत्थर विशेष तौर पर मंगवाया। इसकी चमक आज भी वैसी ही है, जैसे की कोठी निर्माण के समय थी।
एक साथ 30 लोग कर सकते हैं भोजन
कोठी का डायनिंग हॉल भी कोठी की तरह ही नायाब है। वर्तमान में यहां पर एक साथ लगभग 18 से 20 लोगों के बैठकर भोजन करने की व्यवस्था है, जबकि पुराने समय में यहां पर 25 से 30 लोग आराम से बैठ सकते थे।इस कोठी में 30 कमरे है, 15 सर्वेंट क्वार्टर है, 07 गुसलखाने व 03 किचन है।
आलीशान कोठी में ही बनी है मस्जिद
नवाब परिवार के लोग कोठी में ही बनी मस्जिद में ही इबादत करते हैं। बताते हैं कि यह मस्जिद कोठी निर्माण से पहले से बनी हुई है, जिसकी देखभाल आदि की पूरी जिम्मेदारी नवाब परिवार के लोग ही निभाते हैं।
मुख्य कक्ष का आकर्षण है शेर-शेरनी का जोड़ा
कोठी में प्रवेश करते ही बीच में मुख्य कक्ष है, जहां पहले नवाब साहब मेहमानों और लोगों के साथ बैठकें किया करते थे। वर्तमान में इसका मुख्य आकर्षण शीशे की टेबल पर रखा शेर और शेरनी का जोड़ा है। मोअज्जम सरताज बताते हैं कि इसका शिकार उनके वालिद सरताज वली खां ने 26 साल की उम्र में नेपाल के जंगलों में किया था। फिर उन्हें यहां लाकर कोठी में सजाकर रखा। आज भी इनकी खाल, नाखून आदि देखकर जीवित शेर-शेरनी देखने का अहसास होता है। मुख्य हॉल में ब्रिटिश दौर के अंतिम और पहले मुस्लिम गर्वनर छत्तारी साहब और ग्वालियर के राजा का भी फोटो लगा है।
देशभक्ति और सांप्रदायिक सौहार्द की प्रतीक है कोठी
चक महमूद स्थित नवाब साहब की कोठी सिर्फ नवाब साहब के परिवार का आशियाना मात्र ही नहीं है, बल्कि यह देशभक्ति संग सांप्रदायिक सौहार्द का भी प्रतीक है। मोअज्जम बताते हैं कि उनके वालिद सरताज वली खां के समय में कोठी में 26 जनवरी और 15 अगस्त को कार्यक्रम होते थे। ध्वजारोहण भी होता था। इसके लिए कोठी के बगीचे में अलग से स्थान बना हुआ है। जिसमें शहर के तमाम जनप्रतिनिधि भी शिरकत करते थे। इसके साथ ही होली पर होली मिलाप भी होता था।
अफगानिस्तान से आकर बसा था नवाब साहब का परिवार
मोअज्जम सरताज बताते हैं कि उनके पूर्वज शायब वली खां अफगानी घोड़ों के बड़े व्यवसायी थे जो अफगानिस्तान से घोड़े लाकर यहां बेचते थे। वह सन् 1830 के शुरुआती वर्षों में यहां आते थे। उनका निकाह महमूद खां की बेटी से हुआ, जिसके बाद वह यहां आकर बस गए। उनके दो बेटे उमराव और सरदार वली खां हुए। शायब वली खां ने अपने दोनों बेटों के साथ अंग्रेजों के खिलाफ 1857 की लड़ाई में हिस्सा लिया, जिसमें शायब वली और उमराव वली को अंग्रेजों ने पकड़ लिया और उन्हें काला पानी की सजा दी, जबकि सरदार वली खां फरार हो गए। वह नवाबगंज के पास अधकटा गांव जाकर छिपे। सन 1916 में अंग्रेजों ने उन्हें भी ढूंढ निकाला और अधकटा गांव में ही फांसी की सजा दी। स्वतंत्रता संग्राम में इस परिवार का योगदान लोग आज भी याद करते हैं। आज भी यह कोठी शहर की शान बनी हुई है।