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Jagran Special : श्रीलाल शुक्ला की कहानियां सुनकर बडे़ हुए यूपी के इस विश्वविद्यालय के कुलपति Bareilly News

जिंदगी में अगर सही राह पर चलना है तो पुस्तकों को अपना दोस्त बनाना होगा। पुस्तकें आपकों जिंदगी की उन सच्चाइयों से रूबरू कराएंगी जो आपकी तरक्की और ज्ञान के लिए जरूरी हैं।

By Abhishek PandeyEdited By: Published: Mon, 18 Nov 2019 01:48 PM (IST)Updated: Mon, 18 Nov 2019 03:07 PM (IST)
Jagran Special : श्रीलाल शुक्ला की कहानियां सुनकर बडे़ हुए यूपी के इस विश्वविद्यालय के कुलपति Bareilly News
Jagran Special : श्रीलाल शुक्ला की कहानियां सुनकर बडे़ हुए यूपी के इस विश्वविद्यालय के कुलपति Bareilly News

जेएनएन, बरेली : जिंदगी में अगर सही राह पर चलना है तो पुस्तकों को अपना दोस्त बनाना होगा। पुस्तकें आपकों जिंदगी की उन सच्चाइयों से रूबरू कराएंगी जो आपकी तरक्की और ज्ञान के लिए जरूरी हैं। लेकिन आज लोग पुस्तकों की जगह मोबाइल और इंटरनेट को अपना दोस्त बनाने लगे हैं। यह दोनों ही इंसान की सोचने, समझने और कलात्मक क्षमता को समाप्त करते जा रहे हैं। अध्ययनशीलता को बढ़ावा देने और लोगों को पुस्तकें पढ़ने के लिए प्रेरित करने के उद्देश्य से दैनिक जागरण ‘आओ पुस्तक पढ़ें’ स्तंभ की शुरुआत कर रहा है। इसके जरिए हम आपको उन लोगों के अनुभव से रूबरू कराएंगे जो अपनी व्यस्ततम दिनचर्या में भी समय निकालकर पुस्तकें जरूर पढ़ते हैं। पहली कड़ी में पढ़िए रुहेलखंड विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो अनिल शुक्ला...

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श्रीलाल शुक्ला की कहानियां सुनकर बडे़ हुए कुलपति

मेरा जन्म लखनऊ मोहनलालगंज के अतरौली गांव में हुआ था। यह वही गांव है जहां साहित्य अकादमी से पुरस्कृत विद्वान साहित्यकार श्रीलाल शुक्ल ने अपनी मशहूर पुस्तक ‘राग दरबारी’ लिखी थी। श्रीलाल शुक्ल का घर मेरे घर के ठीक सामने था। बचपन में मैं उन्हीं की कहानियां सुनकर बड़ा हुआ। मुङो आज भी याद है जब मैं सातवीं कक्षा में था।

अच्छे भाषण के लिए मिली थी श्रीलाल शुक्ल की पुस्तक                                                          स्वतंत्रता दिवस पर जब मुङो अच्छे भाषण के लिए प्रधानाचार्य ने श्रीलाल शुक्ल की पुस्तक भेंट की थी। किताबें पढ़ने का शौक वहीं से शुरू हो गया। पिता स्व. बलराम शुक्ल उन दिनों मुंबई में रहा करते थे और मां सुंदरी शुक्ला मेरे साथ रहती थीं। विषयों की पढ़ाई से मुङो जब भी समय मिलता तो मैं किसी न किसी की आत्मकथा, कहानी या अन्य साहित्यिक पुस्तकें पढ़ने बैठ जाता था। 12वीं में पहुंचा तो किताबें पढ़ने का मेरा शौक और भी बढ़ गया। वर्ष 1975 के आसपास की बात है। तब तक गांव में एक चलती-फिरती लाइब्रेरी शुरू हो चुकी थी।

चवन्नी किराए पर किताब पढ़ने से शुरु हुआ सिलसिला  

एक शख्स साइकिल पर कई किताबें लेकर चलता और लोगों से चवन्नी लेकर उन्हें किताबें किराए पर पढ़ने के लिए देता था। मैंने भी उससे किताबें लेना शुरू कर दिया। गीता, महाभारत, रामायण सभी का अध्ययन किया। स्नातक और परास्नातक तक यह सिलसिला अनवरत चलता रहा। ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी, कैलीफोर्निया स्टेट यूनिवर्सिटी, फाउंडेशन फॉर एडवांस एजुकेशन सियोल कोरिया में रहते हुए मैं पुस्तक पढ़ते हुए अच्छे अंश नोट भी करने लगा।

पढ़ रहे हरिशंकर परसाई की पुस्तक ‘निठल्ले की डायरी’ 

वह नोट्स आज भी मेरे पास हैं। जब भी मुङो कोई समस्या आती है तो मैं उन पुस्तकों के नोट्स का अध्ययन करके खुद में अधिक ऊर्जा की अनुभूति करता हूं। नौकरी में आया तो समय कम मिलने लगा। धीरे-धीरे जिम्मेदारियां बढ़ती गईं तो यह समय और घटता चला गया। लेकिन मैंने इस समस्या को कभी खुद पर हावी नहीं होने दिया। मैं हर रोज कोई न कोई पुस्तक जरूर पढ़ता हूं। इन दिनों मशहूर व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई की पुस्तक ‘निठल्ले की डायरी’ पढ़ रहा हूं।

मुङो याद है बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में पढ़ाई के दौरान मेरे शिक्षक प्रो. एसएन सिंह कहा करते थे कि अगर विद्वान बनना है तो किताबें पढ़िए। यह बात अब मैं अपने छात्रों को कहता हूं। अगर आपको कुछ सही मायने में करना या सीखना है तो आपको पढ़ना पढ़ेगा। - प्रो अनिल शुक्ला 


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