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Jagran column: सियासत बोलती है- सियासी गलियारों में चटखारे लेकर बयां हो रहा माननीय का बंगला

वह कई प्रयास के बाद पहली बार सदन में पहुंचे तो माननीय होने के बाद उन्हें शहर में अपना बंगला बनवाने का ख्याल आया। जमीन भी खरीद ली लेकिन नक्शा पास कराने में पेच फंस गया।

By Abhishek PandeyEdited By: Published: Sun, 05 Jan 2020 05:00 AM (IST)Updated: Sun, 05 Jan 2020 05:00 AM (IST)
Jagran column: सियासत बोलती है-  सियासी गलियारों में चटखारे लेकर बयां हो रहा माननीय का बंगला
Jagran column: सियासत बोलती है- सियासी गलियारों में चटखारे लेकर बयां हो रहा माननीय का बंगला

वसीम अख्तर, बरेली। वह कई प्रयास के बाद पहली बार सदन में पहुंचे हैैं। रहने वाले कस्बे के हैैं। कर्मभूमि शुरू से ही शहर रहा। रहते भी यहीं रहे लेकिन अपना बंगला नहीं है। माननीय होने के बाद उन्हें शहर में अपना बंगला बनवाने का ख्याल आया। जमीन भी खरीद ली। ऐसा दो बार में किया। जब नक्शा पास कराने के पहुंचे तो वहां दो अलग प्लॉट होने से पेंच फंस गया। दो प्लॉट का एक नक्शा पास होने में अड़चन खड़ी हो गई। बंगले में नियम आड़े आए तो रुतबे का इस्तेमाल किया। तब बड़े अफसर ने मातहतों को बुलाकर कह दिया, माननीय के मसले का हल निकालें। माथापच्ची के बाद रास्ता बता दिया। उसमें भी एक दिक्कत है, उन्हें फीस ज्यादा देना पड़ेगी। माननीय इसके लिए तैयार नहीं हैैं। वह कम पैसों में काम चाहते हैैं। ऐसे में बंगला बनने से पहले ही उसकाकिस्सा सत्ता से लेकर विपक्ष के गलियारों तक में चटखारे लेकर बयां किया जा रहा है।

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रेटिंग लो, रेट हाई

पार्टी में उनका फरमान अकबर-ए-आजम से कम नहीं माना जाता। वह जितना कह दें, उतना करना पड़ता है। न कहने की हिम्मत उनके सिपहसालारों में नहीं है। अब चाहे हुक्म बजा लाने के लिए वह मिन्नतें करें या धमकाएं, लक्ष्य तो जितना मिला है, उतना पूरा करके ऊपर लेकर जाना है। पार्टी के सालाना कार्यक्रम के पहले इस बार दिक्कत यह आ रही है कि उपचुनाव में प्रदर्शन के एतबार से चुनावी रेटिंग लो है। जिनसे माल विधानसभा चुनाव लडऩे की बात कहकर माल मांगा जा रहा है, वे कह भी रहे हैैं-रेट हाई है। इतना नहीं कर पाएंगे। जवाब में उन्हें सब्जबाग दिखाकर मनाया जा रहा है। कुछ मान गए हैैं, ज्यादातर अभी नहीं मान पाए हैैं। ऐसे में पुनर्गठन में जिम्मेदारी पाने वाले ओहदेदार मुश्किल घड़ी से गुजर रहे हैैं। न उगलते और न निगलते बन रहा। प्रार्थना में लगे हैैं, बस किसी तरह 15 जनवरी गुजर जाए।

गुरु की कुर्सी डंवाडोल

उस्ताद पार्टी में अपने एक चेले को लाए और उसे भूल भी गए। वक्त गुजरता गया। अब जब उस्ताद के राष्ट्रीय पार्टी में छोटे से बड़ा बनने की जुस्तुजू में थे तो पासा पलट गया। जिस कुर्सी पर उनकी नजर थी, उस पर उनके चेले को ही बैठा दिया गया। लखनऊ से जारी सूची में नाम पढ़कर उस्ताद की आंखें फटी रह गईं। उन्हें याद आ गया जिसे अध्यक्ष बनाया गया है, वह तो उनका अपना ही चेला है। बात यहीं खत्म नहीं हुई चेले की बदौलत उस्ताद की कुर्सी जाने का भी इंतजाम हो गया। इसलिए क्योंकि पार्टी में दो अध्यक्ष एक ही समुदाय के कभी नहीं रहे। अब जब भी पार्टी छोटे अध्यक्षों की सूची जारी करेगी तो उस्ताद के नाम के आगे पूर्व शब्द लिख जाएगा। पार्टी के लोग उन्हें सामने से आता देखकर बेसाख्ता कह पड़ते हैैं, अध्यक्ष जी की तो भैैंस के साथ रस्सी भी गई।

मफसर जैकेट के राज

पार्टी ने उन्हें जिले में इसलिए सेनापति बनाया कि वह निर्विवाद चेहरा हैैं। उम्मीद थी कि सबमें घुल मिल जाएंगे। ऐसा हुआ भी। उनकी बदौलत गुटबाजी की जोर पकड़ी हवाएं भी मद्धम होने लगीं। बिखरे धड़े पार्टी के कार्यक्रम में एक दिखे लेकिन राजनीति में विवादों से नाता कहां छूटता है। उन्हें पद संभाले अभी जुम्मा-जुम्मा चंद दिन हुए हैैं। उन पर इल्जाम लग गया। उनके आने से पहले पार्टी में पूर्व हो चुके ओहेदेदार ने वाट्सअप ग्रुप में ब्रांडेड कंपनी के मफलर और जैकेट के फोटो डाल दिए। कुछ ने तो उनके इस कदम को हल्केपन से लिया लेकिन ज्यादातर भांप गए, दाल में कुछ काला है। खोजबीन की गई तो माजरा समझ में आ गया। ग्रुप में डाले गए मफलर और जैकेट एक पूर्व ओहदेदार के गिफ्ट किए बताए जाने लगे। इतना होते ही बात फैल गई। देने और गिफ्ट लेने वाले का नाम भी लिया जाने लगा।  


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