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Jagran column: बोली गली :- सपने तो स्मार्ट सिटी वाले पैकेट में बंद थे, सड़कें भला कैसे बनतीं

कभी नेता जी तो कभी टाईकोट वाले सबने पूरे साल स्मार्ट सिटी वाले पैकेट में सपने भरकर सामने रख दिए। 365 दिन बाद सब्र टूटने पर देखा तो उसमें से जुमले वाली हवा का तेज झोंका निकाला।

By Abhishek PandeyEdited By: Published: Fri, 03 Jan 2020 05:00 AM (IST)Updated: Fri, 03 Jan 2020 10:00 AM (IST)
Jagran column: बोली गली :- सपने तो स्मार्ट सिटी वाले पैकेट में बंद थे, सड़कें भला कैसे बनतीं
Jagran column: बोली गली :- सपने तो स्मार्ट सिटी वाले पैकेट में बंद थे, सड़कें भला कैसे बनतीं

अभिषेक जय मिश्र, बरेली : कभी नेता जी तो कभी टाईकोट वाले, सबने पूरे साल स्मार्ट सिटी की ढपली खूब बजाई। एक भी सपना हवा में तैरने नहीं दिया। सब पर झपट्टा मारा और स्मार्ट सिटी वाले पैकेट में भरकर आंखों के सामने रख दिया। इस शर्त के साथ बस दूर से ही देखना, हाथ कतई मत लगाना। एक दिन, दो दिन, तीन सौ और पूरे 365 दिन बीतने आए तो सब्र साथ छोड़ गया। देखने चल दिए कि पैकेट में है क्या। देखा तो उसमें से हवा का तेज झोंका निकाला, जो आंखें खोल गया। बता गया कि सपने तो पैकेट में बंद थे, सड़कें भला कैसे बनतीं। सात सौ करोड़ के टेंडर भी उसी में बंधे बैठे थे, वे काम में तब्दील होते भी तो कैसे। खैर, तमगा मिल गया है इसलिए हम हैं तो फिर भी स्मार्ट ही। यह बात अलग है कि कहने वाले चाहें कहते रहें कि गड्ढे वाले स्मार्ट।  

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सब चाल है 

मुफ्त के चक्कर में ऐसे पड़े कि लती हो गए। अब लत पड़ ही गई है तो खामियाजा भी भुगतना ही पड़ेगा। खूब फ्री में इंटरनेट चलाया था। चार-चार सिम कार्ड झपट लिए थे। अब चलाओ इंटरनेट। हर महीना रिचार्ज कराओ और महंगे टैरिफ का जेब पर बोझ बढ़ाओ। तभी कहते हैं, पैर उतने ही पसारो जितनी जरूरत हो। प्रेमनगर में रहने वाले उस युवा की झुंझलाहट उस दर्द को बयां कर रही थी जो स्मार्ट फोन की बर्फिंग में फंसा हुआ था। फेसबुक पर डमरू बनकर आ रहा था। फोन दिखाते हुए कहने लगे- देख रहे हैं ना, फोरजी के पैसे लेकर टू-जी से खराब स्पीड आ रही है। ये जो फोर-जी और फ्री सिम वाले प्लान थे, वे सब बाजार की चालबाजी थी। अब बात-बात पर इंटरनेट के भरोसे हो गए तो कंपनियों के मुताबिक पैसा देना पड़ रहा। अब फ्री के चक्कर में पडऩा।  

कांग्रेसी हो क्या

नागरिकता वाले कानून की पचड़ों से दूर गुलाबनगर की गलियों में रहने वाली अपनी रौ में दिखे। बतकही चल रही। एक बुजुर्ग चर्चा की सुनें-मंदिर बने या मस्जिद। कश्मीर से 370 रहे या हटे, हमारी बला से। हमारे घरों के चूल्हों की आंच तक तो महंगी कर दी। सिलिंडर के दाम कैसे आसमान छू रहे हैं। पहले सब्सिडी छोडऩे के लिए सरकार कहती रही। करोड़ों में खेलने वालों ने सब्सिडी छोड़ी, पकड़े भी रहते तो क्या। हमने तो नहीं छोड़ी। अब तो वहबैंक खातों में आती भी नहीं। लगता है बड़े वाले कारोबारी के खातों में पहुंच रही है। रोजमर्रा की सब्जियां रसोई से दूर हो चली हैं। गाड़ी लेकर निकलो तो चौराहे पर फोटो खिंच जाती है। फिर जुर्माना भरो। किससे कहें, कौन सुनेगा। लगातार सुनकर उकता चुके एक शख्स तुनककर बोले, अमा यार बहुत बड़बड़ा रहे हो, कांग्रेसी हो क्या। इतना कहना था कि चचा घर के अंदर। 

जनता 'मुर्गी' है 

रानी साहब की फाटक के पास चबूतरे पर सजी चौपाल में शहर का विकास देखने वाले विभाग के एक मुलाजिम हाकिम को घेरने में जुटे थे। कह रहे थे-जनता तो मुर्गी है, दाना डालते रहिए। मुर्गी आपके पीछे ही चलती रहेगी। न कुछ सोचेगी, न ही पीछा छोड़ेगी। फिर जब दाना डालने वाले को भूख लगती है तो उसी मुर्गी को हलाल करके पेट भरा लिया जाता है। सियासतदारों की भूख मिटाने के लिए जनता का भी मुर्गी जैसा हाल है। उन्हें लगा कि उनके इस अद्भुत ज्ञान को बड़ी संजीदगी से लोग दिमाग में उतार रहे हैं तो आवाज में तेजी आ गई। बोले- एक कविता भी सुन ही लो-देश का हो गया बंटाधार, हर जगह घूम रहे गद्दार। उनकी पहली ही लाइन पर वहां खड़े चचा से रहा न गया। बोले- सूबे में सरकार चाहें किसी रंग की हो, मुर्गी तो सबको दिखाई देती है।  


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