गौरवपूर्ण थाती की अनमोल दास्तां, बांस की खेती और बरलदेव नाम को मिलाकर बना बरेली Bareilly News
कुछ इतिहासकारों ने बरलदेव को बरहलदेव भी लिखा है। गजेटियर की बात करें तो उसमें नागदेव लिखा गया।
बरेली, जेएनएन : बरेली.. महज एक जिले या शहर का नाम भर नहीं, बल्कि गौरवशाली इतिहास की गाथाओं को खुद में समेटी धरा के एक महत्वपूर्ण अंश की पहचान है। यह नाम क्यों, कब और कैसे पड़ा, शायद इसकी जानकारी मौजूदा पीढ़ी तो छोड़िए हमारे कई अग्रजों को भी न हो। क्योंकि, विधिवत और विस्तृत रूप से कभी इस पर काम ही नहीं हुआ। ‘दैनिक जागरण’ आपको शहर और इसके भीतर दबे पड़े गौरवपूर्ण अतीत की झलक दिखाएगा। किस्से, कहानियों और लोकमान्यताओं को संजोए मुहल्लों, क्षेत्रों के नाम, पहचान के अतीत से रूबरू कराएगा।
शहर के इर्द-गिर्द कभी बांस की खेती हुआ करती थी। यह 1536 ईसवी की बात है। तब यहां के राजा जगत सिंह कठेरिया थे। आबादी न के बराबर थी और बांस का जंगल था। राजा जगत सिंह के दो बेटे थे। एक बांस देव, दूसरे बरलदेव। इतिहास के पन्ने पलटने से यह भी पता लगता है कि कुछ इतिहासकारों ने बरलदेव को बरहलदेव भी लिखा है। गजेटियर की बात करें तो उसमें नागदेव लिखा गया। बांस की खेती और राजा के बेटों के नाम की जुगलबंदी से जिले का नाम बरेली पड़ा। किसी भी भाषा में बरेली नाम का कोई मतलब नहीं है। जबकि, रुहेलखंड का हिस्सा रहे बरेली का इतिहास अत्यंत गौरवशाली है। शहर के बहुत से मुहल्ले ऐसे हैं, जिनके नाम के भाषाई मायने नहीं हैं। कई मुहल्ले ऐसे भी हैं कि जिनके नाम पर आबाद हुए उनका नाम सैकड़ों साल बीतने पर भी नहीं पता लग सका है। यहां तक कि इतिहासकार भी इससे पर्दा नहीं उठा पाए। दरअसल, शहर में मुहल्लों के इतिहास पर कभी काम ही नहीं हुआ।
इतिहास पर लिखी गई किताबों को पढ़ने से साफ होता है कि यमुना नदी के उस पास कुरुक्षेत्र और इस पार का क्षेत्र अहिच्छत्र कहलाता था। महाभारत काल में यहां पांडव भी आए। आंवला के रामनगर में लीलौर झील उनके आने का प्रमाण कही जाती है। बताया जाता है कि यहीं यक्ष ने पांडवों से प्रश्न पूछे थे। कठेरिया राजपूतों के बाद सल्तनत काल और फिर मुगलिया हुकूमत के अधीन भी रहा। गाहे-बगाहे मराठा भी अधिपत्य जमाने के लिए हमले करते रहे। रुहेलों का लंबा इतिहास रहा है। रुहेला सरदार हाफिज रहमत खां पर तो कई किताबें भी लिखी गईं।
इतिहास लिखे जाने का यह सिलसिला हाफिज रहमत खां की शहादत के 30-35 साल बाद तक चला। उनके खानदानी मुस्तजाब अली खां ने ‘गुले रहमत’ और ‘गुलिस्ताने रहमत’ दो किताबें लिखीं। फारसी भाषा में लिखी गई इन किताबों का हवाला देते हुए अन्य लेखकों की किताबें भी आईं। इन्हीं किताबों में मुहल्लों का जिक्र है। कुछ मुहल्ले राजा, नवाब और उनके सिपहसालारों के नाम पर आबाद होते चले गए।
अंग्रेजों के भारत से जाने के बाद जब शहर नए सिरे से आबाद होना शुरू हुआ तो कुछ के नाम ब्रिटिश हुकूमत के हिसाब से रख दिए गए। कुछ मुहल्ले जमींदार और पुराने वक्त के नामवर लोगों के नाम पर तो कुछ के नाम वहां की आबादी में जिस जाति, समुदाय का बाहुल्य रहा उसके नाम पर हैं। दैनिक जागरण की ओर से शुरू की जा रही इस अभिनव श्रृंखला ‘मुहल्लानामा’ में शहर के सभी पुराने मुहल्लों के ऐसे ही अनपढ़े, अनसुने और रोचक अतीत से पर्दा उठेगा। हम-आप अपनी जन्मभूमि या कर्मभूमि के इतिहास से मुखातिब होंगे।