ढीली पड़ रही गांवों में संबंधों की वह मजबूत डोर
---लवकुश ¨सह ---------------------- जागरण संवाददाता, बलिया : राज्यसभा के उप सभापति हरिवंश्
---लवकुश ¨सह
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जागरण संवाददाता, बलिया : राज्यसभा के उप सभापति हरिवंश नारायण ¨सह दो दिनों से अपने पैतृक गांव सिताबदियारा के दलजीत टोला में हैं। उनसे मिलने वाले लोगों का तांता लगा हुआ है। खास कर सिताबदियारा के लोग उनके साथ गांव के सामाजिक हालात पर लगातार चर्चा कर रहे हैं। गांव के लोगों से उप सभापति भी 45 साल पहले देखे गांव के उस अनुभव को बताते नहीं थकते। इस दौरान उनके गुरु जेपी इंटर कालेज के अवकाश प्राप्त शिक्षक सुरेश गिरी, चचेरे भाई राधेश्याम ¨सह, कृष्ण कुमार ¨सह, गांव से शिवपूजन ¨सह, छितेश्वर ¨सह, लालजी यादव, नागेंद्र ¨सह, मधेश्वर ¨सह, रामप्रवेश ¨सह, मुखदेव ¨बद, रामदेव प्रसाद आदि सहित दर्जनों लोग वहीं मौजूद थे। अपना अनुभव बताते हुए उप सभापति हरिवंश ने सिताबदियारा के 45 साल पूर्व की तस्?वीर को जब सभी के सामने रखा तो सभी को यह महसूस करना पड़ा कि कभी एक सूत्र में बंधा गांव 27 टोले वाले सिताबदियारा का समाज अब कहीं न कहीं से टूटते हुए प्रतीत हो रहा है। बताया कि चार दशक पहले तब सचमुच गरीबी थी। दो नदियों का घेरा, विशाल दरियाव पार करना होता था। घाघरा उस पार रिविलगंज या इधर बैरिया, रानीगंज ही सबसे बड़ा शहर लगता था। न सड़क, न अस्पताल, न बिजली, न फोन, चार-पांच महीने पानी में ही डूबे-घिरे रहना पड़ता था। बाढ़ के वे दिन, वेग से चलती हवाओं से उठती लहरें, दरवाजे पर बंधी नावों से यात्रा के वे दिन, आज भी मन को रोमांचक स्थिति में ला देते हैं। तब कितना कठिन था जीवन इसे भुगतने वाला ही बयां कर सकता है। इसके बावजूद भी हर गांव में गहरा मेल था। अब गांव में बिजली है, अस्पताल है, सड़कें हैं ¨कतु 27 टोले वाला वह सिताबदियारा नहीं रहा जो 45 साल पहले था।
--इनसेट--तब गांव में ताड़ी घड़ा लाना भी था अपराध
उप सभापति हरिवंश ने यह भी बताया कि तब गांव के एक नैतिक इंसान या बुजुर्ग का आदर पूरा गांव करता था। कहा कि 1970 में रिविलगंज से एक आदमी दो घड़ा ताड़ी लेकर दीयर में उतरा। तब चाचा चंदिका बाबू (जेपी के सहयोगी) ने संबंधित टोलों के बुजुर्गो को खबर कराई। वह ताड़ी जस की तस फिर घाट पर वापस चली गई, इस हिदायत के साथ कि दोबारा इस पार न आए। आज शराब के बाजार का विस्तार हो गया है। दशकों तक उस घटना की चर्चा हम सुनते रहे। तब पंचों का फैसला सर्वमान्य होता था, आज बाप को बेटा सुनने के लिए तैयार नहीं है। पहले एक बुजुर्ग की अवहेलना 27 गांव नहीं कर पाता था। नैतिक बंधन की यह बाड़, गरीबी का चोला उतारते गांवों ने तोड़ दिया है। पहले रामायण, कीत्तर्न, भजन, सत्संग, साधु-संत सेवा में लोग मुक्ति तलाशते थे, अब शराब, ठेकेदारी और राजनीति मुक्ति के नए आयाम हैं। उन्होंने जोर देकर गांव के युवाओं के सिर जिम्मेदारी दी कि वे आगे आएं, बड़े बुर्जुगों का सम्मान करें और गांव में वही पूराना समाज स्थापित करने का प्रयास करें, जहां जन्म लेने वाले बच्चों को भी गर्व महसूस हो सके।
--शिक्षा पर देना होगा जोर
उपसभापति ने कहा कि गांव में प्राथमिक विद्यालयों में बच्चों को पढ़ाने के लिए सरकार शिक्षकों को न्यूनतम लगभग 50 हजार रुपये वेतन देती है। वेतन लेकर बच्चों को न पढ़ाना अक्षम्य अपराध है। इसका विरोध स्थानीय स्तर पर होना चाहिए। वह भी लोकतांत्रिक तरीके से नियम के अंतर्गत। ¨हसक विरोध उचित नहीं होता। देश में नौकरियों की कमी नहीं है ¨कतु नकल के भरोसे परीक्षा पास कर नौकरी नहीं प्राप्त की जा सकती है। इसके लिए जरूरी है मन लगाकर पढ़ाई।