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बो रहे तपिश के बीज, कर रहे छांव की उम्मीद

जागरण संवाददाता बलिया वृक्ष रूपी गहनों से सजी प्रकृति की मनोरम छटा यह अतिसुशोभित ²श्य मानस पटल पर आते ही स्वत हरियाली का एहसास कराने लगती है। लोगों का हरा-भरा मन न सिर्फ प्रफुल्लित होता है बल्कि उस उंचाइयों पर पहुंच जाता है जहां से सकारात्मकता की किरणें प्रस्फुटित होने लगती हैं।

By JagranEdited By: Published: Wed, 05 Jun 2019 10:14 PM (IST)Updated: Thu, 06 Jun 2019 06:23 AM (IST)
बो रहे तपिश के बीज, कर रहे छांव की उम्मीद
बो रहे तपिश के बीज, कर रहे छांव की उम्मीद

हाइलाइटर--- ये कैसी विडंबना! उन बाग-बगीचों पर कुठाराघात, अपनी रक्षा के लिए हम उनसे मित्रता किए हैं और उसी मित्रता पर वार या अपने ही जीवन पर, प्रकृति के इस सवाल के जवाब में बस खामोशी ही खामोशी..। उत्तर देंगे भी तो क्या जब स्वयं को ही नष्ट करने पर तुले हैं। उस ऊंचाई तक जाने की क्या आवश्यकता जहां पहुंचते ही मानव जीवन के अस्तित्व का अंत हो जाए, फिर भी नहीं मान रहे, एकल विकास को सभी लगा रहे दौड़, बढ़ रहा पारिवारिक विघटन, कंक्रीट की इमारतों से सजती जा रही प्रकृति, धरा का भूषण बाग-बगीचों पर निर्दयता-कठोरता से प्रहार कर छीन रहे प्रकृति से उसकी हरियाली और उम्मीद.. रंजना सिंह, बलिया

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वृक्ष रूपी गहनों से सजी प्रकृति की मनोरम छटा, यह अतिसुशोभित दृश्य मानस पटल पर आते ही स्वत: हरियाली का अहसास कराने लगती हैं। ऐसे प्राकृतिक सौंदर्य से लोगों का मन न सिर्फ प्रफुल्लित होता है, बल्कि उन ऊंचाइयों पर पहुंच जाता है जहां से सकारात्मकता की किरणें प्रस्फुटित होने लगती हैं। मानव जीवन में हर पल हरियाली बिखेरने वाली उसी प्रकृति के आभूषण बाग-बगीचों पर एकतरफा वार, जिसका अस्तित्व ही मनुष्य के जीवन की रक्षा को समर्पित है। इस मानसिकता का परिचय उस मानव समाज द्वारा दिया जा रहा है जिनके जीवन की कल्पना तक प्रकृति के बिना संभव नहीं है। बलिया की धरती पर भी हर मोहल्ले में ऐसे उदाहरण देखने को मिल रहे हैं। प्रहार से मर्माहत प्रकृति मांग रही दया की भीख

इस सत्य से कदापि इन्कार नहीं किया जा सकता कि एकल विकास की धारणा से पनपा पारिवारिक विघटन भी इसके लिए जिम्मेदार है। एक वह समय था जब कई परिवार एक आंगन में न सिर्फ हंसी-खुशी रहते थे, बल्कि किसी एक की पीड़ा पर दर्द सबको होता था। आज एकल परिवार के विकास के लिए आपस में बढ़ती दूरियां से प्रकृति के बीच कंक्रीट की इमारतें अपना पांव पसार चुकी हैं और इस कड़ी में लगातार इजाफा हो रहा है। यह प्रकृति पर प्रहार ही तो है। शहर से सटे गांवों तक भूमि अपनाने को सभी आतुर हैं यानी गांवों में तेजी से शहरीकरण हावी हो रहा है। जमीन की खरीद-फरोख्त उसके लिए नहीं कि बाग-बगीचे लगाएंगे, धरा पर हरियाली लाएंगे। हां प्लान के तहत शॉपिग मॉल, रेस्टोरेंट, मैरेज हाल आदि कंक्रीट रूपी रोपित वह सभी बीज जगह-जगह अपने मुकाम पर पहुंच हरियाली के खात्मे की कहानी बयां कर रहे हैं।

यही नहीं कंक्रीट के बीजारोपण के कार्य भी तीव्रता से अग्रसर हैं जो प्रकृति पर कुठाराघात के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। अपवाद स्वरूप कुछ परिवार को छोड़ इस मुहिम में वही दौड़ नहीं लगा रहे जो पूरी तरह अक्षम हैं। एकल विकास की प्रवृत्ति से उपजे इस माहौल ने प्रकृति को पूरी तरह मर्माहत कर दिया है। खुद तो परिवार से टूट ही रहे पेड़-पौधों को भी उसके समूह से अलग कर रहे। इस प्रदूषित वातावरण के बीच सिसक रहे शेष बचे बाग-बगीचे व उपवन के पौधे। प्रकृति पर हरियाली लाने को, अस्तित्व बचाने को, मांग रहे लोगों से दया की भीख ताकि हमेशा-हमेशा तक कायम रह सके प्रकृति व मानव के बीच अटूट संबंध और सुरक्षा के घेरे में रहे सृष्टि।


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