गठबंधन व्यवस्था लोकतांत्रिक सिद्धांतों के अनुकूल नहीं
भारतीय लोकतांत्रिक प्रणाली और संसदीय राजनीति में अटूट श्रद्धा रखने वाले पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की आज जयंती है। युवा तुर्क के नाम से विख्यात पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर का जन्म 17 अप्रैल 1927 को बलिया के इब्राहिमपट्टी गांव के एक किसान परिवार में हुआ था। दस नवंबर 1990 से 21 जून 1991 तक की छवि एक सिद्धांतवादी आर्दश नेता की थी।
युवा तुर्क के नाम से मशहूर पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर का जन्म 17 अप्रैल 1927 को बलिया के इब्राहिमपट्टी गांव के एक किसान परिवार में हुआ था। देश में गठबंधन की राजनीति पर भी चंद्रशेखर के विचार पूरी तरह स्पष्ट थे। उन्होंने अपने लेख में भी गठबंधन की व्यवस्था पर लिखा है कि गठबंधन एक व्यवस्था मात्र है। यह लोकतांत्रिक सिद्धांतों के अनुकूल नहीं है। चाहे वह भारत की बात हो या दुनिया के किसी अन्य देश की। जनतंत्र में होता यह है कि यदि कोई पार्टी बहुमत में नहीं आती है तो एक समझौते को तैयार हो जाती है, लेकिन इसके लिए कुछ चीजों का होना आवश्यक है। देश के सामने जो समस्याएं हैं, उनपर एक मत हो। सिद्धांतों के लिए क्या कार्यक्रम अपनाएं जाएं कि आपसी सहमति बनी रहे। अगर यह नहीं है तो वह प्रजातांत्रिक गठबंधन नहीं है, केवल सत्ता में भागीदारी है।
लवकुश सिंह, बलिया
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भारतीय लोकतांत्रिक प्रणाली और संसदीय राजनीति में अटूट श्रद्धा रखने वाले पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की बुधवार को जयंती है। युवा तुर्क चंद्रशेखर देश में गठबंधन राजनीति के प्रणेता भी माने जाते हैं। इस बात का उल्लेख स्वयं पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा ने भी तब किया था जब चंद्रशेखर इस लोक से विदा हो गए। उन्होंने लिखा था कि चंद्रशेखर ही वह राजनेता थे जो कांग्रेस जैसे राजनीतिक दल के अभिन्न अंग रहते हुए भी जब उन्हें लगा कि कांग्रेस को कुछ निरंकुश ताकतें अपने हिसाब से चलाना चहती हैं तो वे बिना वक्त गंवाए देश को उबारने के लिहाज से जयप्रकाश नारायण के साथ आकर खड़े हो गए। उसी का नतीजा रहा कि देश में जनता पार्टी के आंदोलन ने जोर पकड़ा और 1977 में कांग्रेस को मुंह की खानी पड़ी। भले ही यह प्रयोग ज्यादा दिनों तक नहीं चल सका लेकिन देश में वास्तविक अर्थों में गठबंधन के राजनीति की शुरूआत यहीं से हुई थी जिसके प्रणेता चंद्रशेखर ही माने जाते हैं। जाति तोड़ो आंदोलन के भी पक्षधर थे युवा तुर्क
सिताबदियारा के चैनछपरा में आज भी खड़ा वह बुढ़ा पीपल का वृक्ष इस बात का गवाह है, जब जेपी के नेतृत्व में 1974 में जनेऊ तोड़ो.जाति प्रथा मिटाओ आंदोलन का शंखनाद हुआ था। तब के बुजुर्गों को याद है वह दिन जब माइक पर चंद्रशेखर उस आंदोलन की सभा का संचालन कर रहे थे। वह जेपी के जाति तोड़ो आंदोलन के भी पक्षधर थे। तब जेपी सहित सिताबदियारा और आसपास के लगभग 10 हजार लोग उस आंदोलन का हिस्सा बने थे और अपना जनेऊ तोड़ यह संकल्प लिया था कि वे उस दिन से जाति प्रथा को नहीं मानेंगे। हालांकि उस आंदोलन का असर लंबे समय तक नहीं रहा। राजनीति में नेताओं के घटते मान पर यह थे चंद्रशेखर के जवाब
चंद्रशेखर स्वयं एक नेता थे लेकिन अपने कथन में राजनीति के बदलते स्वरुप पर बेबाक बोलते थे। राजनीति में राजनेताओं के मान कम होने से एक सवाल पर उनके विचार कुछ इस तरह के थे- 'आज राजनीति के दो उद्देश्य रह गये हैं। पहला समाज में लोगों का समर्थन कैसे मिले, कुछ भी, कैसे भी, चाहे गलत करके या सही करके। दूसरा पैसा कैसे मिले। आज की राजनीति भी इन्हीं दो चीजों पर आधारित है, पैसे पर और असरदार लोगों के समर्थन पर। वैसे मेरा मानना है कि यह न किया जाए तो भी उससे उतना ही लाभ मिलता है जितना और किसी तरीके से। राजनीति में भटकाव की इस प्रक्रिया को एक व्यक्ति नहीं चला रहा है। जब हम जनता से दूर हो जाते हैं, उनकी समस्याओं पर कम ध्यान देते हैं, ऐसे में गैर राजनीतिक गतिविधियां चलने लगती हैं। गांधी जी ने कहा था कि राजनीति सिर्फ भाषण देना नहीं है, कुछ रचनात्मक कार्य भी होने चाहिए। अब कौन करता है यह सब, करता भी है तो गैर सरकारी संस्था चलाता है। एनजीओ को चलाने के लिए वह सारे तिकड़म चाहिए जो सरकारी संस्थाओं में चलते हैं। यदि इसे अस्वीकार कर दीजिए तो सबसे गए गुजरे आदमी हैं हम। हम राजनीति नहीं, राजनीति के सौदागिरी का काम करते हैं।'