नौकरी छूटी तो गद्दा-रजाई से लौटी चूल्हे की गर्मी
कोरोना काल में रोजगार छिनने से लाखों लोगों की जिदगी की गाड़ी पटरी से उतर गई। आर्थिक गतिविधियां शुरू हुई तो कुछ लोगों को निजी कंपनियों में दोबारा अवसर मिला। लेकिन अब भी तमाम लोग घर छोड़कर परदेस जाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं।
जेएनएन, बदायूं : कोरोना काल में रोजगार छिनने से लाखों लोगों की जिदगी की गाड़ी पटरी से उतर गई। आर्थिक गतिविधियां शुरू हुई तो कुछ लोगों को निजी कंपनियों में दोबारा अवसर मिला। लेकिन, अब भी तमाम लोग घर छोड़कर परदेस जाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं। ऐसी ही कहानी बिनावर के किशोरपुर गांव के बरकत अली और नन्हें खां राजस्थान के भिवाड़ी में स्थित एक कंपनी में काम करते थे। स्वजन के साथ घर लौटे तो रोजी-रोटी का संकट उत्पन्न हुआ। दोनों ने जगत में रजाई-गद्दे भरने का काम शुरू कर दिया। आमदनी भी होने लगी तो जिदगी की गाड़ी धीरे-धीरे पटरी पर लौट आई है।
बिनावर क्षेत्र के गांव किशोरपुर के बरकत अली और नन्हें खां वर्षों पहले रोजी-रोटी की तलाश में राजस्थान के भिवाड़ी पहुंच गए थे। कंपनी में नौकरी कर रहे थे। परिवार का खर्च भी आसानी से चल रहा था। शायद वहीं जिदगी कट जाती। लेकिन, कोरोना ने जिदगी को बदलकर रख दिया। कंपनी से नौकरी छूट गई तो परिवार के साथ घर वापस लौट आए। यहां भी करने के लिए कुछ नहीं था। गतिविधियां भी ठप पड़ी हुई थीं, थोड़ी-बहुत जो पूंजी बची थी वह भी धीरे-धीरे खर्च हो गई। लाकडाउन के बाद दोनों ने साथ मिलकर कुछ करने की ठानी। गांव से करीब 40 किमी दूर जगत में गद्दा-रजाई भरने और तैयार कर बेचने का कारोबार शुरू किया। जनरेटर के साथ रूई धुनाई की मशीन लगाई और गद्दा-रजाई तैयार करने लगे। स्थानीय लोग भी आने लगे और बाजार में दुकानों पर भी पहुंचाना शुरू कर दिया। शुरूआत में तो आय बहुत कम होती थी, लेकिन अब 500 से लेकर 800 रुपये प्रतिदिन की आय होने लगी है। जिदगी में उतार-चढ़ाव आते रहते हैं, लेकिन कोरोना काल में अप्रत्याशित बदलाव आया। बरकत अली कहते हैं कि काम कोई छोटा-बड़ा नहीं होता। अपनी क्षमता के अनुरूप कोई भी काम किया जा सकता है। वह बताते हैं कि कंपनी की नौकरी छूटने के बाद कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें। नन्हें खां के साथ मिलकर छोटी सी शुरूआत की तो अब आर्थिक तंगी दूर हो गई है। स्थानीय बाजार में अपनी अलग पहचान भी बन गई है।