शहर ने आंख चुराया, गांव ने दिल में बसाया
शहर ने आंख चुराया गांव ने दिल में बसाया
चंद्रशेखर यादव, औरैया:
कोरोना संकट के कारण हुए लाकडाउन ने बहुतों को जहां दिन में तारे दिखा दिए वहीं कईयों को जमीन। बेहतर जीवन स्तर का ताना-बाना बुन अपने गांव को छोड़कर शहर कमाने गए लोगों का सुंदर सपना टूट गया है। बंद हुए संस्थानों में रोजगार न मिलने या प्रकार के आमदनी स्रोत सूख जाने के बाद पीड़ित लोग अपने गांव-घर लौट आए हैं। अब वे खेती-किसानी,मजदूरी व पुश्तैनी काम करके अपना जीविकोपार्जन करने लगे हैं।
लॉकडाउन किसी के लिए वरदान बना हुआ है तो किसी के लिए अभिशाप। अब रामरतन प्रजापति के बेटे नीरज को ही देख लें। ग्लैमर में फंस वह बहू नीतू के साथ कमाने के लिए दिल्ली चला गया। लाकडाउन के बाद जब परिस्थितियां प्रतिकूल हुई तो वे गांव लौट अपना पुश्तैनी काम दोबारा करने लगे। यानी मिट्टी के बर्तन बनाने में आज वे अपने माता-पिता का हाथ बंटा रहे है। गर्मी बढ़ने के साथ घड़े व सुराही की मांग से उन्हें जहां बेहतर रोजगार मिल गया वहीं माता-पिता को बच्चों का सहारा।
ग्राम सौंथरा निवासी दिल्ली में रहकर एक कंपनी में काम रहे नीरज और रीतू प्रजापति अपने घर लौट आए हैं।
नीरज बताते हैं कि दिल्ली की जिस कंपनी में वे काम कर रहे थे वह मनमानी तरीके से उनकी सैलरी भी काटने लगी थी। लेकिन जब कंपनी बंद हुई तो कमाने का जरिया भी बंद हो गया। जैसे तैसे एक माह वहां कटा, लेकिन जब भविष्य अंधकारमय दिखने लगा तब माता-पिता,घर व अपने गांव की याद आई। यहां आए तो लगा कि गांव की माटी ने उसे दिल से अपना लिया है। अब वह व उसकी पत्नी पिता के साथ मिट्टी के बर्तन बना रहे हैं। गांव में खेती-किसानी कर जीवकोपार्जन के बारे में गंभीरता से काम कर रहे हैं। वहीं, नीरज के पिता रामरतन प्रजापति कहते हैं कि लॉकडाउन के चलते इस बार शादी ब्याह लगभग बंद हैं। मिट्टी के बर्तनों की मांग व आपूर्ति भी प्रभावित हुई है। फिर भी हमें उम्मीद है कि समय के साथ बाजार में हमारा सामान बिकेगा। कहा कि बाहर से बच्चों के आ जाने के बाद हम अति उत्साह से काम कर रहे हैं। बच्चे भी हमारे साथ रहकर काम करना चाहते हैं। कमाने के लिए तो अब शहर जाना ही नहीं चाहते।