राज घरानों और उनके वैभव की कहानी कहते हैं यह राजमहल, देखिए तस्वीरें और पढ़िए इनका दिलचस्प इतिहास
ब्रिटिश हुकूमत से देश को आजादी मिलने के बाद राजशाही परंपरा खत्म कर दी गई। लोकतांत्रिक व्यवस्था स्थापित की गई। इसके बावजूद राज घरानों से जुड़ी किवदंतियां एवं वैभवशाली इतिहास के प्रति आकर्षण आज भी बना हुआ है। प्रयागराज व प्रतापगढ़ के कई राज परिवार हैं
प्रयागराज, जेएनएन। भारत में राजा-रजवाड़ों की परंपरा सदियों पुरानी है। कभी राजाओं के नेतृत्व में सामाजिक व्यवस्था संचालित होती थी। ब्रिटिश हुकूमत से देश को आजादी मिलने के बाद राजशाही परंपरा खत्म कर दी गई। लोकतांत्रिक व्यवस्था स्थापित की गई। इसके बावजूद राज घरानों से जुड़ी किवदंतियां एवं वैभवशाली इतिहास के प्रति आकर्षण आज भी बना हुआ है। प्रयागराज व प्रतापगढ़ के कई राज परिवार ऐसे हैं, जिन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया। इससे जन-जन में उनकी लोकप्रियता बढ़ी। वे राजनीति में आए तो शिखर पर पहुंचे। ऐसे राजाओं की वंशावली आज भी चर्चा के केंद्र में हैं। राजघराने अब बीते जमाने की बात भले ही हो गए, मगर अपनी वैभवशाली विरासत, परंपरा और शान की कहानी कहते आज भी कुछ राजमहल खड़े हैं।
राजा मांडा वीपी सिंह बने प्रधानमंत्री
प्रयागराज में प्रमुख राजघरानों में मांडा, डैया, शंकरगढ़ और बरांव शामिल हैं। डैया राजघराने के राजा भगवती सिंह थे। इनकी पहली पत्नी से चंद्रशेखर प्रताप सिंह और विश्वनाथ प्रताप सिंह का जन्म हुआ। दूसरी पत्नी से तीन पुत्र संतबक्श सिंह, हरिबक्श सिंह व राजेंद्र सिंह हुए। इनकी रियासत मीरजापुर तक फैली थी। कोरांव के डैया राजघराने के पास ही मांडा राजघराना था, जिसके रामगोपाल सिंह राजा हुआ करते थे। रामगोपाल सिंह को संतान नहीं हुई तो उन्होंने राजा डैया के छोटे बेटे विश्वनाथ प्रताप को आठ वर्ष की अवस्था में गोद लिया। विश्वनाथ प्रताप सिंह राजनीति में सक्रिय रहे। वह नौ जून 1980 से 28 जून 1982 तक उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे। इसके बाद दो दिसंबर 1989 से 10 नवंबर 1990 तक देश के प्रधानमंत्री रहे, इन्होंने ही मंडल कमीशन सिफारिशों को लागू किया था। अब भी डैया और मांडा में राजघराने के महल अपनी विरासत को संजोए खड़े हैं। शहर में कोठियां हैं। इसी तरह शंकरगढ़ राजघराने के राजा कमलाकर सिंह थे। अब भी शंकरगढ़ राजघराने की ओर से दशहरा उत्सव का आयोजन होता है, जिसमें झांकियां निकाली जाती हैं। इस आयोजन में आसपास के कई गांव के लोग मौजूद होते हैं। स्व. राजा कमलाकर सिंह के बेटे महेंद्र प्रताप सिंह इसका आयोजन कराते हैं। महेंद्र प्रताप सिंह भी राजनीति में उतरे थे। वह बारा विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ चुके हैं। करछना इलाके में बरांव राजघराने का भी इतिहास है। यहां राजा राघव प्रताप सिंह थे। इस परिवार से कुंवर रेवती रमण सिंह प्रदेश के चर्चित राजनेता हैं। ये कई बार प्रदेश सरकार में मंत्री रहे हैं।
अवध नवाबों से प्रतापगढ़ को बचाने में इस राजपरिवार ने कई लड़ाईयां लड़ीं थी। 1857 की गदर में इस परिवार के ज्यादातर लोग अंग्रेजी हुकूमत के वफादार थे, लेकिन इसी परिवार के गुलाब सिंह बगावत करके अंग्रेजों के खिलाफ लड़ रहे थे। इसी राजपरिवार में स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान राजा प्रताप बहादुर सिंह, राजा अजीत प्रताप सिंह और बाद में राजा अभय प्रताप सिंह हुए। राजा अजीत प्रताप सिंह ने स्वतंत्र उत्तर प्रदेश की सरकारों में अलग-अलग समय पर कई मंत्रालय संभाले थे। प्रतापगढ़ की कुंडा तहसील में भी कई नामी राजपूत तालुकदार हुए, जिनमें बिसेन राजपूतों की कालाकांकर स्टेट और भदरी स्टेट के नाम उल्लेखनीय है। 1857 की क्रांति में कालाकांकर स्टेट के राजकुमार लाल प्रताप सिंह का इनाम उल्लेखनीय है। इन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ क्रांति की कमान संभाली थी और 1858 में चांदा की लड़ाई में शहीद हुए थे। इस स्टेट में महामना मदनमोहन मालवीय और हिंदी के प्रसिद्ध कवि सुमित्रानंदन पंत के गहरे संबंध थे। कालाकांकर स्टेट के राजा रामपाल सिंह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के संस्थापक सदस्यों में से एक थे और उनके कनिष्ठ पुत्र बृजेश सिंह भारतीय राजनीति में एक जाने माने नेता थे। राजा रामपाल सिंह के पौत्र राजा दिनेश सिंह राजनीति में काफी सक्रिय थे। इंदिरा गांधी की सरकार में विदेश मंत्री रहे। भदरी स्टेट के राजा उदयप्रताप सिंह की क्षेत्र में काफी लोकप्रियता है। वे अपने क्षेत्र के लोगों से आत्मीयता से मिलते हैं। उदय प्रताप के पुत्र रघुराज प्रताप सिंह (राजा भैया) प्रदेश के सक्रिय व लोकप्रिय राजनेता हैं।
स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय रहे राजा
सई नदी के तट पर बसे प्रतापगढ़ का इतिहास बहुत पुराना है। ये जिला आंवले के साथ रजवाड़ों के लिए भी प्रसिद्ध है। स्वतंत्रता संग्राम में राजाओं का योगदान प्रेरक रहा। जिले में वैसे तो कई राजपरिवार हैं और दर्जनों रियासतें हैं। इनके किले और महल आज भी विद्यमान हैं। तीन प्रमुख स्टेट की चर्चा करने पर सबसे पहला नाम कालाकांकर स्टेट का आता है। प्रतापगढ़ के सराय नहर में पुरातत्व अन्वेषण में कुछ जानवरों की हड्डियों के साथ कई मानव कंकाल और कई छोटे पत्थरों के औजार, संभवत: नवपाषाण काल के हैं। सई नदी के तट पर एक खंडहर आज भी उपस्थित हैं, जिसे कोट के नाम से जाना जाता है। इतिहासकारों की मानें तो यह कोट, बौद्ध स्तूप के अवशेष हैं।
मध्यकालीन युग में प्रतापगढ़ का अधिकतर हिस्सा राजपूत तालुकदारों के अधिकार में रहा। ऐसा माना जाता है कि प्रतापगढ़ के सोमवंशी राजपूत, विजय सेन झूंसी से पलायन करके प्रतापगढ़ आए थे। इनके पुत्र लखन सेन ने यहां अहरौर में अपना किला बना लिया था। लखन सेन के तीन पुत्र थे। मोहनवार देव, मलूक सिंह और जैत सिंह। लखन सेन के दूसरे पुत्र मलूक सिंह बागी होकर दिल्ली सल्तनत में मिल गए थे और मुस्लिम धर्म को अपना लिए थे। बाद में दिल्ली सुल्तान की शहजादी से विवाह करने पर इन्हें इलाहाबाद क्षेत्र का सूबेदार बना दिया गया था। 1328 ई. में राजा जीत सिंह की मृत्यु के बाद उनके पुत्र कान्ह देव गद्दीनशीन हुए और आज प्रतापगढ़ व उसके आसपास के अधिकतर राजधराने इन्हीं के वंशज हैं। कान्ह देव के कनिष्ठ पुत्र पृथ्वी सिंह इनके उत्तराधिकारी हुए, जिन्होंने पृथ्वीगंज कस्बे की स्थापना की थी। आगे चलकर इसी राज परिवार में राजा प्रताप सिंह का जन्म हुआ था, जिन्होंने 1628 में सिंहासनग्रहण कर प्रतापगढ़ नगर की स्थापना की थी। इसी शहर के रामपुर में नए किले का निर्माण करवाया था। इनके पुत्र राजा जय सिंह, औरंगजेब के खास मनसबदार थे। बुंदेलखंड के राजा छत्रपाल की बढ़ती ताकतों का दमन करने में राजा जय सिंह के विश्वासपात्र बख्त अली का अहम योगदान था और इसलिए औरंगजेब ने प्रतापगढ़ के राजा जय सिंह को कुलाह-नरेश की उपाधि दी थी और इसलिए इनके वंशजों को कुलहरा-राजपूत के नाम से भी जाना जाता है।
-प्रो. योगेश्वर तिवारी, पूर्व विभागाध्यक्ष मध्यकालीन एवं आधुनिक इतिहास विभाग इलाहाबाद विश्वविद्यालय