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Kumbh mela 2019 : संतों में मतभिन्नता संभव पर उद्देश्य एक है : स्वामी अवधेशानंद गिरि

जूना अखाड़ा के आचार्य महामंडलेश्‍वर स्‍वामी अवधेशानंद गिरि ने कहा कि धर्माचार्यों में कोई विवाद नहीं है। संतों में मतों की तो भिन्‍नता हो सकती है, लेकिन उनका उद्देश्य एक ही है।

By Brijesh SrivastavaEdited By: Published: Fri, 15 Feb 2019 01:21 PM (IST)Updated: Fri, 15 Feb 2019 01:21 PM (IST)
Kumbh mela 2019 : संतों में मतभिन्नता संभव पर उद्देश्य एक है : स्वामी अवधेशानंद गिरि
Kumbh mela 2019 : संतों में मतभिन्नता संभव पर उद्देश्य एक है : स्वामी अवधेशानंद गिरि

कुंभनगर : देश के सबसे बड़े अखाड़े जूना के आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी अवधेशानंद गिरि ने कहा कि धर्माचार्यों में कोई विवाद नहीं है। यह युगधर्म है। विचारों में मतभिन्नता हो सकती है। सबका लक्ष्य और उद्देश्य एक ही है। सभी देश हित में काम कर रहे हैं। लोगों की सेवा कर रहे हैं। ऐसे में विवाद की बात की चर्चा करना ठीक नहीं है।

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धर्माचार्यों का राजनीति में आना गलत नहीं मानते

धर्माचार्यों का राजनीति में आना गलत नहीं है। बहुत से धर्माचार्य राजनीति के क्षेत्र में आकर अच्छा काम कर रहे हैं। राजनीति सेवा है। वैसे भी धर्माचार्यों की वजह से राजनीति की दिशा संयमित रहती है। उन्होंने कहा कि धर्माचार्यों के बीच कभी विवाद नहीं रहा है। यह युगधर्म है। वैचारिक मतभेद किसी से हो सकते हैं। इसे विवाद का स्वरूप नहीं दिया जाना चाहिए।

कहा, रामजन्म भूमि पर जल्द ही सकारात्मक परिणाम सामने आएंगे

रामजन्म भूमि मुद्दे पर जूना पीठाधीश्वर ने कहा कि सरकार इस दिशा में काम कर रही है। जल्द ही सकारात्मक परिणाम सामने आएंगे। उन्होंने कहा कि हर व्यक्ति को जीवन में श्रेष्ठ कार्य करना चाहिए, सत्संग में रहना चाहिए। स्वामी अवधेशानंद कहते हैं कि सकारात्मक विचार दुख, दैत्य और अल्पता के निवारण की सर्वोत्तम औषधि है। प्रकृति के दोहन पर उन्होंने दुख जताया। प्रकृति पर्यावरण का रक्षण और संवर्धन दैव आराधना का एक रूप है। अपने व्यस्त समय में उन्होंने दैनिक जागरण के मुख्य उपसंपादक रवि उपाध्याय से विभिन्न पहलुओं पर बातचीत की। प्रस्तुत है बातचीत के प्रमुख अंश ...

धर्मसत्ता और राजसत्ता में बड़ा कौन है?

सनातन धर्म में चार पुरुषार्थ कहे गए हैं। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। इन चारों का जीवन में संतुलन होना चाहिए। चारों की महिमा है। अब यह कहें की इन चारों पुरुषार्थों में कौन बड़ा है तो उचित नहीं है। ऐसे ही धर्मसत्ता और राजसत्ता के बारे में विभेद करना ठीक नहीं है। दोनों सत्ताएं अलग-अलग हैं। दोनों ही एक-दूसरे के पूरक हैं। इन दोनों के बीच बिना संतुलन के देश और समाज नहीं चल सकता है।

फिर धर्माचार्य नेता क्यों बनना चाहते हैं?

यदि धर्माचार्य नेता बनकर देशहित में काम करना चाहते हैं तो इसमें गलत क्या है। जिस समय जो जहां अच्छा काम कर सकता है उसे वहीं रहकर काम करना चाहिए। राजनीति भी सेवा है। इसमें रहकर ज्यादा परमार्थ किया जा सकता है। राजनीति में अच्छे लोगों को आना भी चाहिए।

साधु-संत सामाजिक कार्यों में बढ़चढ़ क्यों नहीं भाग लेते हैं?

देश में सैकड़ों औषधालय और विद्यालय धर्माचार्य ही चला रहे हैं। यहां लोगों का मुफ्त इलाज होता है। विद्यालयों में सनातन धर्म से लेकर उच्च शिक्षा दी जा रही है। जल और पर्यावरण पर साधु-संत लगातार काम कर रहे हैं।

रामजन्म भूमि पर मंदिर निर्माण में इतना विलंब क्यों हो रहा है?

सरकार इस दिशा में काम कर रही है। सबको थोड़ा धैर्य रखना चाहिए। जल्द ही सकारात्मक परिणाम सबके सामने आ जाएंगे।

किन्नर अखाड़ा इस समय बहुत चर्चा में है। जूना में शामिल होने के बाद यह अखाड़ा लोगों की जुबान पर आ गया है?

किन्नर भी समाज के अंग हैं। इन्हें भी देव श्रेणी में रखा गया है। बहुत दिन से इनकी उपेक्षा हो रही थी। जूना अखाड़ा ने इन्हें अपने में समाहित करके सामाजिक स्वीकार्यता और सम्मान दिया है।

आज का युवा दिग्भ्रमित क्यों है?

युवाओं की मन:स्थिति को समझना पड़ेगा। वह क्या चाहते हैं। युवा को सही दिशा नहीं मिल पा रही है। हम बेवजह उस पर अपनी मर्जी थोपते हैं। ऐसा करना उचित नहीं है। हमारे यहां बहुत मेधा है और वह बहुत कुछ अच्छा कर रही है।

देेश की मेधा विदेश पलायन कर रही है?

विदेश जाकर भी वह अपने देश के लिए काम कर रहे हैं। विदेशों में पढ़ाई करके बहुत सी मेधा वापस लौटी हैं। वहां पर प्राप्त किया गया अनुभव अपने देश में काम आ रहा है। 

जीवन सिद्धि क्या है?

परमार्थ के कार्यों में निवेश करने से जीवन सिद्धि का मार्ग प्रशस्त होता है। परोपकारी और उदारमना जीवन में आगे बढऩे के सबसे बड़े मार्ग हैं। जिस प्रकार सागर तक पहुंचने के लिए सरिता में तटों का आवलंबन होता है। उसी प्रकार जीवन में उच्चता की प्राप्ति के लिए आत्मानुशासन आवश्यक है। अनुशासन जीवन सिद्धि और सफलता का मूल मंत्र है। जीवन सिद्धि का प्रथम सोपान सत्संग है। जीवन की श्रेष्ठता और उच्चता के लिए सहजता, सरलता और विनम्रता जरूरी है।

लोगों के विचारों में इतनी असमानता क्यों है?

विचारों में असमानता गलत नहीं है लेकिन वह नकारात्मक नहीं होनी चाहिए। यहीं धर्माचार्यों की भूमिका आती है। समाज में सही संदेश जाए यह संतों का काम है। लोगों को सकारात्मक दृष्टिकोण रखना चाहिए। सकारात्मक विचार दुख, दैत्य और अल्पता के निवारण की सर्वोत्तम औषधि है। जिस प्रकार औषधि शारीरिक व्याधियों का निदान करती है उसी प्रकार आध्यात्मिक विचार हमें सुख, शांति, संपन्नता और इहलौकिक और पारलौकिक अनुकूलता प्रदान करता है।

दुुख क्या है?

अज्ञानता, आत्म विस्मृति और अविवेक ही समस्त दुखों की मूल जड़ है। सत्संग, स्वाध्याय और संत सन्निधि ही कल्याणकारी है। शब्द ब्रह्म है। अभिव्यक्ति में सत्य-माधुर्य पवित्र और सभी के लिए आदर भाव रखना चाहिए। अभिव्यक्ति ही हमारे अंतरमन का परिचय है। सद्ग्रंथों का पठन-पाठन और संकलन एक परमाॢथक उपक्रम हैं। वेद, उपनिषदों का दिव्य ज्ञान, श्रेष्ठतम विचार और संस्कृति, संस्कार से दुख दूर होते हैं?

प्रकृति का संतुलन बिगड़ता जा रहा है। इसमें धर्माचार्यों की भूमिका कैसी होनी चाहिए?

धर्माचार्य इस दिशा में सतत प्रयत्नशील हैं। साधु-संत इसको लेकर चिंतित हैं। पर्यावरण को बचाने के लिए साधु-संन्यासी धरने तक पर बैठ चुके हैं। इस विषय पर सबको सोचना चाहिए। वैसे भी प्रकृति-पर्यावरण का रक्षण व संवर्धन दैव आराधना का एक रूप है। क्योंकि नदियां, झील, जलाशय एवं समग्र पर्यावरण में परमात्मा की विभूति, ऊर्जा और अस्तित्व समाहित हैं। ऐसे में सभी का कर्तव्य है कि वह संवदेनशील रहें। परमार्थ प्रकृति का मूल स्वर है जो नदी, झील, जलाशय, वृक्ष आदि विविध रूपों में है। वह परमात्मा परमार्थ के लिए ही अभिव्यक्ति है।

 योग को लेकर भारतीयों से ज्यादा विदेशी सजग हैं। यहां के संत विदेशों में जाकर योग की शिक्षा दे रहे हैं?

योग को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विश्व के मानचित्र पर दर्जा दिलाकर भारत का गौरव बढ़ाया है। पूरे विश्व ने इसे मान्यता दी है। यह यहां के साधु, संतों का ही प्रयास था। वैसे भी योग भारत की दिव्य दैवीय संपदा का अभिन्न अंग है। ध्यान, धारणा, समाधि आदि यौगिक क्रियाएं समता एकात्मता और अनन्तता की अनुभूति में सहायक है।

भारतीय सनातन संस्कृति क्या है?

हमारी संस्कृति संपूर्ण विश्व को परिवार मानती है। पश्चिम समूचे विश्व को बाजार के रूप में देखता है। भारत की कालजयी-मृत्युजयी, सनातनी संस्कृति प्रत्येक संदर्भ में नित्य नूतन और समाचीन है। आचरण की शुचिता, अलोभवृत्ति, परमार्थकता और सम्यक दृष्टि आदि सद्गुणों से मनुष्य दैवत्व का आरोहण होता है। विनयशीलता परमार्थ-भावना एवं भगवद्-शरणागति जीवन सिद्धि के मूलमंत्र हैं। जीवन सिद्धि के लिए सत्संग, स्वाध्याय और महापुरुषों की सन्निधि अपेक्षित है।

कुंभ को लेकर आपका क्या संदेश है?

कुंभ पर्व भारत की सामाजिक समरसता, सांस्कृतिक एकता और दिव्यता की अनुपम अभिव्यक्ति है। भिन्न-भिन्न जातियों, मत और संप्रदायों को मानने वाले हम भारतीय गंगा के तट पर एक हैं। वैसे भी इस बार कुंभ का आयोजन बहुत अद्भुत रहा। बड़ी संख्या में लोग यहां आए और सनातन संस्कृति कितना विशाल और उदारमना है, इसे दर्शाया है।

खास बातें

-धर्मसत्ता और राजसत्ता दोनों एक दूसरे के पूरक

-अज्ञानता समस्त दुखों की जड़

-युवाओं की मन:स्थिति को समझने की जरूरत

-राजनीति में धर्माचार्यों का आना गलत नहीं

-राम मंदिर पर जल्द आएंगे सकारात्मक परिणाम

जीवन दर्शन

स्वामी अवधेशानंद गिरि का जन्म कार्तिक पूर्णिमा के दिन ब्राह्मण परिवार में हुआ। वर्ष 1980 में हिमालय की कंदराओं में गहन साधना की और वर्ष 1985 में निवृत्त शंकराचार्य स्वामी सत्यमित्रानंद गिरि से मुलाकात हुई। इसके बाद उन्होंने संन्यास मार्ग पर कदम रखा। फिर जूना अखाड़े से जुड़ गए। जूना अखाड़े ने ही उन्हें स्वामी अवधेशानंद गिरि का नाम दिया। 1998 में वह जूना अखाड़े के महामंडलेश्वर नियुक्त किए गए। वर्तमान में स्वामी अवधेशानंद गिरि जूना अखाड़ा के आचार्य महामंडलेश्वर हैं। यह देश का सबसे बड़ा अखाड़ा है।

 प्रख्यात कथावाचक स्वामी अवधेशानंद गिरि प्रभु प्रेमी संघ के संस्थापक भी हैं। यह संस्था देश में अन्न, अक्षर और औषधि के लिए प्रकल्प चला रही है। वह हिंदू धर्म आचार्य सभा, भारतमाता मंदिर एवं समन्वय ट्रस्ट हरिद्वार के अध्यक्ष भी हैं। स्वामी अवधेशानंद के चल चिकित्सालय, विकलांग केंद्र, शिक्षण संस्थाएं, जल संवर्धन के कार्यक्रम और राहत सेवा शिविर चल रहे हैं। वह अनेकों पुस्तक के रचयिता हैं।  देश-विदेश के विभिन्न टीवी चैनलों में स्वामी जी के आध्यात्मिक प्रवचन प्रसारित किए जाते हैं।


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