हेलो सर...कमिंग ऑन बोट, आइ एम बोटमैन, यस-यस दिस इज गंगा एंड दैट जमुना, ओके Prayagraj News
अंग्रेजी के कुछ शब्दों का प्रयाेग कर माघ मेला क्षेत्र में नाविक रोजी कमा लेते हैं। वह अनपढ़ हैं पर कई भाषाओं के जानकार हैं। इसी से वह विदेशी पर्यटकों को संगम की सैर भी कराते हैं।
प्रयागराज, [अमरदीप भट्ट]। हेलो सर, कमिंग ऑन बोट। आइ एम बोटमैन। यस, यस दिस इज गंगा एंड दैट जमुना। ओके, ओके। इन शब्दों को पढ़कर यकीनन आप सोचेंगे कि इसमें क्या खास है? तो जनाब, यह विदेश या भारत के हिंदी भाषी राज्यों से आने वाले तीर्थयात्रियों के साथ होने वाला प्रयागराज के नाविकों का संवाद है। यहां गौर करने वाली बात यह है कि ये वह नाविक हैं, जिन्होंने या तो कभी स्कूल का मुंह नहीं देखा या फिर कक्षा दो या तीन के बाद स्कूल गए ही नहीं। अंग्रेजी ही नहीं, ये नाविक तो गुजराती, पंजाबी, बंगला भाषा और ठेठ गंवई भी जैसे-तैसे बोल कर अपना धंधा चला रहे हैं।
विदेशी सैलानियों को भी नाविक ही संगम की बीच धारा की कराते हैं सैर
तीर्थराज प्रयाग में देश के कोने-कोने से और विदेशी सैलानियों का भी आना होता है। माघ और कुंभ मेला से इतर भी संगम पर तीर्थयात्रियों का आवागमन लगा रहता है। इन्हें संगम की बीच धारा तक की सैर नाविक ही कराते हैं। कोई नाविक पांच साल से, कोई 20 तो कोई 40 साल से नाव ही चलाकर अपना और परिवार कर जीवन निर्वाह कर रहा है। नाविकों में अधिकांश कम पढ़े लिखे या पूरी तरह निरक्षर हैं। फिर भी उन्हें कई राज्यों और अंचल तक की भाषाओं का ज्ञान है। टूटी-फूटी भाषा में ही सही लेकिन तीर्थयात्रियों से उन्हीं की जुबान में बात कर नाविक रोजी कमाते हैं।
बोले नाविक-साहब हम पढ़े नहीं हैं लेकिन सुनते-समझते सीख गए भाषा
नाविक बजरंगी लाल निषाद कहते हैं कि साहब, हम पढ़े लिखे नहीं हैं। अंगूठा टेक हैं। तीरथ करने आने वालों से बात करते और उनकी जुबान समझते-समझते कुछ सीख गए हैं। अंग्रेज आते हैं तो ज्यादा परेशानी नहीं होती क्योंकि उनके साथ गाइड होते हैं। वहीं रामकृष्ण निषाद ने कहा कि मजबूरी सब सिखा देती है। ज्यादा बात तो नहीं कर पाते लेकिन उनकी भाषा में बोलकर और इशारे से नाव का किराया जरूर बता देते हैं। अंग्रेज आते हैं तो आइ एम बोटमैन कहकर उन्हें बुलाते हैं। राजकुमार निषाद बोले कि गुजराती, बंगाली कुछ-कुछ बोल पाते हैं। वैसे तो तीर्थयात्रियों के साथ गाइड रहते हैं, लेकिन नाव चलाते समय कुछ लोग गंगा यमुना और संगम के बारे में पूछते हैं तो उन्हें टूटी-फूटी भाषा में बता लेते हैं। वहीं विनोद निषाद ने कहा कि हम तो साहब यहां एक महीने के लिए नाव चलाने आते हैं। किलाघाट वाले दूसरी भाषाओं का ज्यादा ज्ञान रखते हैं। अब नदी का पानी ही हम सब की जिंदगी है। जो थोड़ा बहुत बोल पाते हैं उससे काम चल जाता है।