गरीबों का पेट पालता है चौराहों का रेड सिग्नल Prayagraj News
राजस्थान से आए कुछ परिवार सिग्नल रेड होने का इंतजार करते रहते हैं। सिग्नल रेड होते ही इनके पेन खिलौने और कार-बाइक साफ करने के लिए ब्रश बेचने का कारोबार ग्रीन हो जाता है।
प्रयागराज,जेएनएन : शहर की ट्रैफिक व्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए सिग्नल सिस्टम को एडवांस कर दिया गया है। इससे सुधार की उम्मीद जताई जा रही है तो वहीं कुछ गरीब परिवार इस नई व्यवस्था में अपने लिए रोजगार भी तलाश रहे हैं। राजस्थान से आए कुछ परिवार सिग्नल रेड होने का इंतजार करते रहते हैं। सिग्नल रेड होते ही इनके पेन, खिलौने और कार-बाइक साफ करने के लिए ब्रश बेचने का कारोबार ग्रीन हो जाता है। इनमें गर्भवती महिला और दिव्यांग बच्ची के अलावा कुछ बुजुर्ग भी शामिल हैं।
राजस्थान के बूंदी से प्रयागराज पहुंची गर्भवती गुड्डी ने बताया कि उनके साथ 25 परिवार आए हैं। वे पहले नई दिल्ली में ट्रैफिक चौराहों पर पेन और खिलौने बेचते थे। वहां कारोबार कुछ कम हुआ तो वे प्रयागराज आ गए। म्योहाल चौराहे पर गुड्डी गर्भवती होने के बावजूद पेट की आग बुझाने के लिए कंधे पर झोला टांगे लोगों के पास पहुंचती है। यहां महज 45 सेकेंड में गुड्डी खरीदारों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयास करती है। कई बार वह सफल होती है तो अनेकों बार निराशा हाथ लगती है, पर वह कोशिश करने से नहीं चूकती। बातचीत के दौरान वह बोल पड़ती है साहब खरीदना हो तो बताइए वरना कोई और ग्राहक देखें। सुबह 10 बजे से शहर के अलग-अलग ट्रैफिक सिग्नल पर शुरू होने वाला यह कारोबार रात आठ बजे तक चलता रहता है।
तिरस्कार से तंग होकर अपनाया रोजगार
धोबीघाट चौराहे पर पेन बेच रही दिव्यांग विनीता ने बताया कि दिल्ली में वह लोग पहले भीख मांगकर पेट भरते थे। दिनभर सैकड़ों लोगों के सामने हाथ फैलाने पर बदले में केवल बुरा भला सुनने को मिलता था। कोई नजरअंदाज करता तो कोई डांटकर भगा देता। आंखों में आंसू लिए विनीता बोली साहब कहीं काम मांगने जाते तो भी नहीं मिलता था। बाद में भीख मांगकर जुटाए गए पैसे से दिल्ली में ही थोक में सभी ने सस्ता बाजार खोजा और वहां से खिलौने, पेन आदि खरीदे। इसके बाद उसे चौराहों पर बेचकर जिंदगी गुजार रहे हैं।
खुला आसमान छत और जमीन ही बिस्तर
मेडिकल चौराहे पर पेन बेच रही राजस्थान से आईं बुजुर्ग फूलमती ने बताया कि उनका यह रोजगार सुबह 10 बजे से शुरू होता है और रात आठ बजे तक चलता है। रेड सिग्नल बंद होने के साथ उनके घुमंतू दुकान का शटर भी गिर जाता है। उनका कोई घर नहीं है। वह सड़क की पटरियों पर खुले आसमान के नीचे सोती हैं। रात में कई बार कुछ लोग हटा भी देते हैं। उनके लिए जमीन ही बिस्तर है। उन्होंने यह भी बताया कि दिनभर में बमुश्किल सौ-दो सौ रुपये जुटा पाते हैं।