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Memories of Kargil War : अब भी नहीं सूखे हैैं वीरांगना के आंसू, Prayagraj के लालमणि हुए थे शहीद

Memories of Kargil War जी हां यहां बात हो रही है कारगिल युद्ध में प्रयागराज के करछना निवासी शहीद होने वाले लालमणि यादव की। परिवार में आज भी यादें ताजा हैं।

By Brijesh SrivastavaEdited By: Published: Wed, 22 Jul 2020 11:48 AM (IST)Updated: Wed, 22 Jul 2020 12:12 PM (IST)
Memories of Kargil War : अब भी नहीं सूखे हैैं वीरांगना के आंसू, Prayagraj के लालमणि हुए थे शहीद
Memories of Kargil War : अब भी नहीं सूखे हैैं वीरांगना के आंसू, Prayagraj के लालमणि हुए थे शहीद

प्रयागराज, [सुरेश पांडेय]। 21 साल पहले भारत और पाकिस्तान के बीच हुए कारगिल युद्ध को शायद ही कोई भूला हो। चोटियों पर जमे दुश्मनों को खदेडऩे के लिए 'आपरेशन विजय' में प्रयागराज के सपूत लालमणि यादव ने भी अपनी जान की बाजी लगा दी। 13 कुमाऊं रेजीमेंट के इस जवान के साथ नौ भारतीय जांबाजों ने देश की सीमा की हिफाजत के लिए अपने प्राणों की आहुति दी थी। आज लालमणि का परिवार हर तरह से सुरक्षित व संपन्न है, पर वीरांगना संतोष देवी नहीं। वह कहती हैैं कि उनकी (पति की) कमी तो हमेशा सालती रहेगी।

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सीमा पर तैनात हर जवान सकुशल घर लौटे

शहीद लालमणि की पत्‍नी वीरांगना संतोष देवी आंसू पोछते हुए बोलती हैं कि सीमा पर तैनात हर जवान सकुशल घर लौटे, बस। शहीद जवानों के परिवारों का दुख बांटना उन्होंने अपना धर्म बना लिया है। प्रयागराज ही नहीं, आसपास के जिलों का कोई जवान जब भी सीमा पर देश के लिए वीरगति को प्राप्त होता है, वह बेटों-भतीजों के साथ पहुंच जाती हैैं, अपने नम आंखों के साथ उनके स्वजनों का आंसू पोंछने के लिए।

देश सेवा का जज्बा कम नहीं हुआ है

मूल रूप से प्रयागराज करछना के पतुलकी गांव निवासी लालमणि यादव ने तुरतुक सेक्टर के सब सेक्टर हनीफ में चार सितंबर 1999 को अपने साथियों के साथ मातृभूमि का कर्ज चुकाया था। तीन भाइयों समरजीत, कमला प्रसाद में सबसे छोटे लालमणि वर्ष 1981 में फौज में शामिल हुए थे। शहादत के समय लालमणि बतौर नायक सूबेदार थे। संतोष देवी बताती हैं कि जिस समय यह वज्रपात परिवार पर हुआ, बेटी मंजू 12 साल, अंजू 10 साल व बेटे आलोक व विवेक क्रमश: 08 व 06 साल के थे। अब सभी व्यस्क हैैं पर देश सेवा का जज्बा कम नहीं हुआ है।

शहीद के बेटे विवेक भी फौजी बनकर सरहद पर जाना चाहते हैं

जब भी कोई जवान शहीद होता है शहीद लालमणि के परिवार के सभी सदस्‍य वेदना से भर जाते हैैं। संतोष देवी तो खाना-पीना भूलकर उस दिन टेलीविजन के सामने ही डटी रहती हैैं। विवेक ने बताया कि मां कब सोती हैैं, कब जागती हैैं, मैैं नहीं जान पाता। वह भी देश सेवा के लिए फौजी बनकर सरहद पर जाना चाहते थे, लेकिन मां की ममता आड़े आ गई। 

तिरंगे में लिपट कर आए...

लालमणि अपनी वीरगति से करीब 14 महीने पहले आखिरी बार घर आए थे। सितंबर 1999 में फिर आने की बात कही थी। उन्हें छुट्टी भी मिल गई थी और उन्होंने अपनी ही रेजीमेंट और यूनिट के जवान जितेंद्र के साथ घर आने की तैयारी की थी। चाचा-भतीजे दोनों एक साथ बेस कैंप पर आए थे। वहां लालमणि को उनकी छुट्टी कैंसिल होने की जानकारी दी गई। जितेंद्र बताते हैैं कि चाचा सीनियर थे, हम लोग अपेक्षाकृत नए इसलिए ऐसा हुआ। जितेंद्र ट्रेन के जरिए घर को निकले थे, उससे पहले ही 9 सितंबर 1999 को तिरंगे में लिपटा उनके चाचा लालमणि का शव करछना लाया चुका था। इतना ही नहीं सैनिक सम्मान के साथ उन्हें अंतिम विदाई भी दे दी गई थी।   

जो टेलीविजन पर देख रही हो, वही चल रहा है यहां...

कारगिल युद्ध के दौरान टेलीविजन चैनलों की दुनिया काफी उन्नत हो चली थी। दूरदर्शन तथा अन्य चैनलों पर युद्ध से जुड़े समाचार ही प्रमुखता से रहते थे। लालमणि का परिवार भी इसीलिए ब्लैक एंड व्हाइट टेलीविजन सेट के सामने रहता था। बावजूद इसके आपसी संवाद के लिए अंतरदेशीय पत्र ही सहारा थे। संतोष देवी कहती हैैं कि आखिरी अंतरदेशीय पत्र में उन्होंने (लालमणि) ने इतना भर लिखा था, यहां जो कुछ चल रहा है उसे आप लोग टेलीविजन पर देख ही रहे होंगे। जैसा दिख रहा है, वैसा ही है यहां। लालमणि को दलभरी पूरी और कढ़ी-चावल पसंद थी। जब भी घर आते तो यही उनका पसंदीदा भोजन होता था।


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