महेश प्रसाद श्रीवास्तव कैसे बने महेश योगी, जानिए प्रयागराज से नीदरलैंड का उनका सफर
महेश योगी ने प्रयागराज के अलोपीबाग में अपने गुरू का आश्रम 1954 में छोड़ा। यहां से वह कोलकाता सिंगापुर होते हुए कई देशों में गए। काफी समय तक जबलपुर एवं नोएडा में रहे। नोएडा में अपना आश्रम बनाया। 1990 में नीदरलैंड में आश्रम बनाया और अंत समय तक वहीं रहे।
प्रयागराज, जागरण संवाददाता। स्वतंत्रता के बाद आधारभूत ढांचे को मजबूत करने में पूरा देश लग गया। लोगों को शिक्षित करने के साथ स्वास्थ्य के आधारभूत ढांचे को भी खूब सशक्त करने की कोशिश की गई। तकनीकी शिक्षा को भी बढ़ावा दिया गया। इन सबके बीच संस्कृति और सनातन परंपरा कहीं पीछे छूट रही थी।
धर्म-अध्यात्म की माटी प्रयाग से उसे संबल दिया यहां स्नातक की उपाधि हासिल करने आए महेश प्रसाद श्रीवास्तव ने। इसी के लिए वह आगे चलकर महर्षि महेश योगी बन गए। पूरी दुनिया में उन्होंने सनातनी ध्वज फहराया। उनके आश्रम से पढ़कर निकले कई हजार बटुक आज देश ही नहीं विदेश में भी वेद, पुराण के साथ भारतीय संस्कृति के वाहक बने हैं।
जबलपुर से पढ़ाई के लिए आए थे प्रयागराज महेश प्रसाद
जबलपुर से इलाहाबाद (अब प्रयागराज) शिक्षा ग्रहण करने आए महेश प्रसाद श्रीवास्तव को इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक की उपाधि मिली। यहीं उन्हें गुरू के दर्शन भी हुए। पढ़ाई के दौरान अलोपीबाग स्थित ज्योतिषपीठ के शंकाराचार्य स्वामी ब्रह्मानंद सरस्वती के आश्रम में आना-जाना था। वह शंकराचार्य के प्रवचन से इतना प्रभावित हुए कि उनका झुकाव अध्यात्म की तरफ हो गया। शंकराचार्य के प्रवचन ने उन्हें आध्यात्मिक दुनिया का ऐसा रास्ता दिखाया कि उन्होंने पूरी दुनिया में भावातीत ध्यान की ज्योति जलाकर उसका प्रचार प्रसार किया। अध्यात्म और धर्म के प्रति पिपासा इतनी बढ़ी की वह महेश प्रसाद श्रीवास्तव से महेश ब्रह्मचारी बन गए। शंकराचार्य ब्रह्मानंद सरस्वती को अपना गुरू बनाया। गुरू से उन्हें ऐसा आशीर्वाद मिला कि वह विश्ववंदनीय महर्षि महेश योगी बन गए। दुनिया के देशों में उनके हजारों अनुयायी आज भी है। नीदरलैंड में महेश योगी ने अपना विशाल आश्रम बनाया और अपनी मुद्रा राम को मान्यता दिलाई। यह मुद्रा कई देशों में मान्य रही।
1954 में अलोपीबाग आश्रम से निकले
महेश योगी ने प्रयागराज के अलोपीबाग में अपने गुरू का आश्रम 1954 में छोड़ा। यहां से वह कोलकाता, सिंगापुर होते हुए कई देशों में गए। काफी समय तक जबलपुर एवं नोएडा में रहे। नोएडा में अपना आश्रम बनाया। 1990 में नीदरलैंड में आश्रम बनाया और अंत समय तक वहीं रहे। उन्होंने विदेशों में भारतीय संस्कृति का प्रचार प्रसार किया। लोगों को वेद के आध्यात्मिक व वैज्ञानिक ज्ञान से परिचित कराया। अध्यात्म की नई धारा भावातीत ध्यान का सूत्रपात किया। उनकी विचारधारा आज भी जीवित है।