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Special on Hindi Diwas: इलाहाबाद हाई कोर्ट में हिंदी में फैसले और हिंदी में बहस भी

प्रदेशवासियों को 17 मार्च 1866 से न्याय दिला रहे ऐतिहासिक इलाहाबाद उच्च न्यायालय (हाई कोर्ट) में राजभाषा में निर्णय देने की शुरुआत न्यायमूर्ति प्रेमशंकर गुप्त ने की थी। अपने 15 वर्ष के न्यायाधीश कार्यकाल में उन्होंने चार हजार से अधिक निर्णय हिंदी में दिए।

By Ankur TripathiEdited By: Published: Tue, 14 Sep 2021 07:10 AM (IST)Updated: Tue, 14 Sep 2021 07:10 AM (IST)
Special on Hindi Diwas:  इलाहाबाद हाई कोर्ट में  हिंदी में फैसले और हिंदी में बहस भी
डेढ़ सौ साल पुराने इलाहाबाद हाई कोर्ट की बदल रही पहचान

शरद द्विवेदी, प्रयागराज। न्यायिक क्षेत्र में यह हिंदी का नहीं, राजभाषा का सम्मान है। भले ही अभी कम अदालतों में ऐसा हो लेकिन हिंदी में बहस और हिंदी में फैसलों से इलाहाबाद हाईकोर्ट की अलग पहचान बन रही हैैं। कुछ महत्वपूर्ण फैसलों का हिंदी में दिया जाना लोगों को प्रफुल्लित करने वाला है।

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राजभाषा में निर्णय देने की शुरुआत न्यायमूॢर्ति प्रेमशंकर गुप्त ने की

प्रदेशवासियों को 17 मार्च 1866 से न्याय दिला रहे ऐतिहासिक इलाहाबाद उच्च न्यायालय (हाई कोर्ट) में राजभाषा में निर्णय देने की शुरुआत न्यायमूर्ति प्रेमशंकर गुप्त ने की थी। अपने 15 वर्ष के न्यायाधीश कार्यकाल में उन्होंने चार हजार से अधिक निर्णय हिंदी में दिए। उनके निधन के बाद कुछ अन्य न्यायमूर्तियों ने भी इस धारा को आगे बढ़ाया। न्यायमूर्ति सौरभ श्याम शमशेरी हिंदी के प्रति अपने लगाव को दर्शाते हुए महत्वपूर्ण निर्णय राजभाषा में देतेे हैं। उन्होंने 'फर्जी बीएड डिग्री वाले अध्यापकों की बर्खास्तगी को सही करार देने सहित कई फैसले हिंदी में दिए हैं। न्यायमूर्ति गौतम चौधरी प्रतिदिन कार्य की शुरुआत हिंदी से करते हैं। सुबह 45 मिनट हिंदी में निर्णय देते हैं। वह अभी तक लगभग 2200 निर्णय हिंदी में दे चुके हैं। न्यायमूर्ति शेखर कुमार यादव ने पिछले चार-पांच महीने में तीन सौ से अधिक निर्णय हिंदी में दिए हैं।'गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित करने की सलाह, शादी के लिए मत (धर्म) बदलना अपराध होने और साइबर ठगी में बैंक व पुलिस की जिम्मेदारी तय करने जैसे उनके निर्णय हिंदी में रहे हैैं।

अस्सी के दशक से बढ़ा प्रयोग

इलाहाबाद उच्च न्यायालय में 1980 के दशक में हिंदी का प्रयोग बढ़ा। न्यायमूर्ति स्व. प्रेम शंकर गुप्त का नाम अग्रणी है। उन्होंने कोर्ट में हिंदी के कामकाज को बढ़ावा दिया था। न्यायमूर्ति पंकज मित्थल 'प्रयाग पथ नामक पुस्तक में न्यायमूर्ति प्रेम शंकर गुप्त को भारतीय संस्कृति व साहित्य की निधि बताते हुए लिखते हैैं कि वह अक्सर दोहराया करते थे कि...

'जननी का आंचल छोड़कर किसी आया की बांह पकड़

चलने वालों बोलो, कब तक अपना देश छले जाओगे।

अवकाश प्राप्त न्यायमूर्ति शंभूनाथ श्रीवास्तव सुबह 10 से 11 बजे तक हर निर्णय हिंदी में देते थे। इसके लिए वह स्टेनो विशेष रूप से अपने पास रखते थे। छत्तीसगढ़ का लोकायुक्त रहते हुए आठ सौ से अधिक मुकदमे हिंदी में निर्णीत किए। उन्होंने 'क्या भारत में न्यायालयों की भाषा हिंदी व प्रादेशिक भाषा होनी चाहिएÓ शीर्षक से किताब भी लिखी है। न्यायमूर्ति शशिकांत ने एक हजार से अधिक तथा न्यायमूर्ति प्रेम शंकर गुप्त के पुत्र न्यायमूॢत अशोक कुमार ने लगभग दो हजार से अधिक निर्णय हिंदी में दिए। न्यायमूर्ति रामसूरत सिंह, न्यायमूॢत बनवारी लाल यादव, न्यायमूर्ति गिरिधर मालवीय व न्यायमूर्ति आरबी मेहरोत्रा ने भी काफी निर्णय हिंदी में दिए हैैं। न्यायमूर्ति बनवारी लाल यादव ने 1986 में देववाणी संस्कृत में निर्णय दिया था। बाद उसका हिंदी व अंग्रेजी में अनुवाद हुआ।

अधिवक्ता भी हैैं सक्रिय

इसी उच्च न्यायालय में ऐसे अधिवक्ताओं की संख्या भी बढ़ी है जो हिंदी में बहस करते हैैं। अधिवक्ता वीरेंद्र सिंह, वरिष्ठ अधिवक्ता दयाशंकर मिश्र, नरेंद्र कुमार चटर्जी हाई कोर्ट के वकीलों को हिंदी में बहस व लिखा-पढ़ी करने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। वरिष्ठ अधिवक्ता राधाकांत ओझा कहते हैं कि हिंदी के साथ हर प्रदेश में ज्यादा बोली जाने वाली भाषा अदालत के कामकाज में शामिल की जानी चाहिए।


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