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खुद पर बेहद नाज था फिराक को

28 अगस्त 1896 में बसगांव गोरखपुर में जन्मे रघुपति सहाय की कर्मभूमि प्रयागराज रही। यहीं उन्हें नाम मिला फिराक गोरखपुरी।

By JagranEdited By: Published: Thu, 27 Aug 2020 07:04 PM (IST)Updated: Thu, 27 Aug 2020 07:04 PM (IST)
खुद पर बेहद नाज था फिराक को
खुद पर बेहद नाज था फिराक को

शरद द्विवेदी, प्रयागराज : टोपी से बाहर निकलने को आतुर बिखरे बाल, शेरवानी के बंद बेतरतीब बटन, पाजामे का लटकता इजारबंद, हाथ में सिगरेट, गहरी कसैली आंखें। कुछ ऐसे ही अद्भुत व्यक्तित्व के धनी थे रघुपति सहाय यानी फिराक गोरखपुरी। वह ऐसे रचनाकार थे, जिन्हें अपने व्यक्तित्व पर बेहद नाज था। 28 अगस्त 1896 में बसगांव गोरखपुर में जन्मे रघुपति सहाय की कर्मभूमि प्रयागराज रही। यहीं उन्हें नाम मिला-फिराक गोरखपुरी।

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वर्ष 1913 में मैट्रिक की परीक्षा पास कर गोरखपुर से प्रयागराज आए थे फिराक गोरखपुरी। यहीं के होकर रह गए थे। दौर आजादी के लिए लड़ाई का था। राष्ट्रवाद का जुनून ऐसा था कि आइसीएस (इंडियन सिविल सर्विसेस) के लिए चयनित होने 1920 में महात्मा गांधी के साथ आंदोलन में सक्रिय हो गए। अंग्रेजों ने गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया तो वहां मुशायरा करने लगे। वहां 'अहले जिंदा की यह महफिल है, सुबूत इसका फिराक' की रचना कर डाली। उनकी रचनाओं में देश प्रेम का भाव जागृत होता था। भारत-चीन में 1962 में हुए युद्ध के दौरान उनकी कलम खूब चली थी-

'सुखन की शम्मां जलाओ बहुत उदास है रात।

नवाए मीर सुनाओ बहुत उदास है रात।।'

जनरल वार्ड में थे अकेले: विडंबना यह है कि साहित्य के जिस शिखर पुरुष का सानिध्य पाने के लिए कभी लोग लालायित रहते थे वह जीवन के अंतिम पड़ाव पर बेहद अकेला था। बात फरवरी 1982 की है फिराक बीमार थे। स्वरूपरानी नेहरू चिकित्सालय में उनका इलाज चल रहा था। वह जरनल वार्ड में अकेले पड़े थे। उमाकांत मालवीय मिलने गए तो चैतन्य हो गए। बोले, 'जिस फिराक के लिए कभी दरबार सजता था था वो आज अकेला है।' इलाज के दौरान इसी अस्पताल में उनका निधन हो गया था।

----------- स्मृतियों में फिराक गोरखपुरी

शेक्सपीयर पर दिया अद्भुत व्याख्यान : शिवमूर्ति

वर्ष 1942 में ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के अंग्रेजी विभागाध्यक्ष इलाहाबाद विश्वविद्यालय आए थे। विलियम शेक्सपियर पर गोष्ठी थी। कुलपति अमरनाथ झा ने इसमें बतौर वक्ता फिराक का नाम तय किया। फिराक ने कहा कि 'शेक्सपियर पर जितनी किताबें विश्वविद्यालय में हैं उसे मेरे घर भेज दीजिए। जब तक मैं उसे पढूं तब तक मेरे खाने-पीने का खर्च विश्वविद्यालय वहन करे।' कुलपति ने ऐसा ही किया। इविवि से भेजी गई किताबों का बंडल तो खोला ही नहीं परंतु, भाषण दिया तो सभी दंग रह गए। आक्सफोर्ड से आए मेहमान ने कहा 'शेक्सपियर पर जितना आपने बता दिया है उतना इंग्लैंड में कम लोग ही जानते हैं।'

शिवमूर्ति सिंह, वरिष्ठ साहित्यकार

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पंडित नेहरू के नहीं बुलाने पर गए थे भड़क

बतौर प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू 1950 में प्रयागराज आए थे। फिराक उनसे मिलने आनंद भवन गए। रिसेप्शनिस्ट ने पर्ची में आर. सहाय लिखकर अंदर भेज दिया। करीब 15 मिनट बीतने पर बुलावा नहीं आया तो फिराक भड़क गए। नेहरू बाहर आए, माजरा समझ बोले मैं 30 साल से तुम्हे रघुपति सहाय के नाम से जानता हूं, मुझे क्या पता ये आर. सहाय कौन है? फिर नेहरू उन्हें अंदर ले गए। पूछा, नाराज हो? फिराक ने जवाब दिया-

तुम मुखातिब भी हो, करीब भी। तुमको देखें कि तुमसे बात करें।।

आशुतोष श्रीवास्तव, गजल गायक डॉ. ईश्वरी को लगाई थी फटकार : मंजू

एक बार इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पंडित नेहरू भाषण दे रहे थे। उनसे इतिहास की घटनाओं का जिक्र करने में एक-दो बार गलती हो गई थी। वहां मौजूद प्रख्यात इतिहासकार डॉ. ईश्वरी प्रसाद ने उनकी भूल सुधारनी चाही। पास बैठे फिराक चीख कर बोले, 'बैठ जाओ ईश्वरी, तुम इतिहास रटने वाले आदमी हो और ये इतिहास को बनाने वाला है।'

मंजू पांडेय 'महक जौनपुरी' कवयित्री

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उर्दू साहित्य में चाहते थे भारतीयता : रविनंदन

फिराक साहब उर्दू साहित्य में भारतीय संस्कृति का समावेश करना चाहते थे। अक्सर कहते थे कि 'उर्दू साहित्य में जब तक भारतीयता का प्रवेश नहीं होगा तब तक उसका पाट संकरा रहेगा। मेरी कोशिश ऐसी है कि उर्दू साहित्य में भारतीयता की खुशबू पैदा हो जाय।'

रविनंदन सिंह,वरिष्ठ साहित्यकार

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रामचरितमानस पर थी श्रद्धा : यश

जब मैं नौंवी कक्षा का छात्र था तब पिता उमाकांत मालवीय मुझे बैंक रोड स्थित फिराक के आवास पर ले गए थे। वह एक पत्रिका के लिए फिराक का इंटरव्यू लेने गए थे। मुझे देखकर फिराक खुश हुए और केला व सेब खाने के लिए दिया। इंटरव्यू के दौरान उन्होंने कहा कि 'जब कभी मुझे मां की गोद याद आती है तो मैं श्रीरामचरितमानस के पास जाता हूं। पन्नों को खोल कर सहेज देता हूं।

यश मालवीय, प्रख्यात गीतकार

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अपनी अंग्रेजी पर था गर्व

फिराक गोरखपुरी को अपनी अंग्रेजी पर गर्व था। वह अक्सर कहते थे कि भारत में डेढ़ लोगों को अंग्रेजी आती है। एक मुझे और आधी जवाहर लाल नेहरू को। हिदी के विरोधी के रूप में प्रचारित किया गया है परंतु वह ऐसे नहीं थे।

प्रणविजय सिंह, इतिहासकार व साहित्य मर्मज्ञ


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