पुराने दौर के चुनाव: ऐसे थे नेता कि पूछा परिवार का हालचाल औऱ कर लिया पूरा प्रचार
यह ऐसा दौर था और ऐसी विभूतियां थीं जिन्हें सुनने के लिए लोग दिन भर एक पैर पर खड़े रहते तब भाड़े के श्रोता व भीड़ नहीं थी अब तो सबकुछ ठेके पर हो चला है जिसकी जितनी ठेकेदारी उसकी उतनी भागेदारी।
प्रयागराज, जेएनएन। चुनावी समर का एलान तब भी होता था, आज भी होता है। पहले भी मुद्दे उछलते थे, मुद्दे आज भी उछला करते हैं। प्रतिस्पर्धा का दौर पहले भी था और आज भी वह वैभवशाली परंपरा कायम है। इन सबके बीच कुछ खालीपन सा महसूस होता है, वह है बड़े नेताओं के बीच की घटती भाषा की मर्यादा। घट-घट में समाता विद्वेष। उस दौर के चुनाव की याद ताजा करने मात्र से लोकतंत्र के इस यज्ञ के प्रति सम्मान बढ़ जाता है। तब के चुनाव और अब के चुनाव में काफी फर्क आ गया। पहले के चुनाव मुद्दे के आधार पर लड़े जाते थे, चुनाव में शालीनता झलकती थी।
1962 का वह चुनावी दौर
अब तो सब कुछ बदल चुका है। यह दर्द व्यक्त करते हुए रायबद्री पाल सिंह इंटर कॉलेज बीरापुर के पूर्व प्रधानाचार्य 78 वर्षीय पंडित शंभू नाथ त्रिपाठी वर्ष 1962 के चुनाव के उस दौर की याद कराते हैं, जब प्रतापगढ़ में चुनाव प्रचार के लिए पंडित जवाहर लाल नेहरू भी आया करते थे। यूं तो वह कई किस्से सुनाते हैं, उसी में से एक किस्सा पंडित मुनीश्वर दत्त उपाध्याय के चुनाव से जुड़ा है, कांग्रेस प्रत्याशी के रूप में मुनीश्वर दत्त प्रतापगढ़ सीट से लोकसभा चुनाव लड़ रहे थे। उस वक्त पंडित जवाहरलाल नेहरू ने प्रतापगढ़ के सदर बाजार के पास रामलीला मैदान में एक जनसभा को संबोधित किया था।
सुनिए पंडित शंभूनाथ की जुबानी
उस जनसभा को सुनने मैं (पंडित शंभूनाथ त्रिपाठी) भी चला गया। पूरे भाषण में पंडित नेहरू ने कांग्रेस पार्टी की नीतियां बताईं और अंत में प्रत्याशी के लिए वोट मांगा, लेकिन किसी भी दल की न कोई बुराई की, न कोई टिप्पणी की। बल्कि उन्होंने अपने भाषण में गुरु-शिष्य परंपरा का जिक्र किया था, सभा में मौजूद युवाओं की ओर मुखातिब होकर बोले, याद रखना गुरु एक मुर्तिकार की तरह होता है, जिस तरह से एक मूर्तिकार हथौड़ी से मार-मारकर पत्थर को एक सुंदर मूर्ति का आकार दे देता है, उसी तरह से गुरु अपनी डांट-फटकार और ज्ञान से शिष्य को सही मार्ग पर ले जाता है। ऐेसे में गुरुओं का आदर करें, अपने लक्ष्य के लिए अपना शत-प्रतिशत योगदान दें, तभी जीवन सफल होगा, नए भारत का उदय होगा। यह किसी राजनीति से प्रेरित व्यक्तव्य नहीं था, बल्कि यह उस राजनेता का स्वस्थ संदेश था, जो इंग्लैंड से पढ़कर अपने देश के सृजन में योगदान दे रहा था।
परिवार के लोगों का नाम लेकर पूछते रहे हालचाल
अपने छात्र जीवन के चुनाव का एक दूसरा रोचक अनुभव साझा करते हुए पूर्व प्रधानाचार्य कहते हैं कि पं. रामराज शुक्ला बीरापुर विधानसभा क्षेत्र से कांग्रेस प्रत्याशी थे। उस वक्त कांग्रेस के बड़े नेता पं. मुनीश्वर दत्त उपाध्याय एक जीप से पं. रामराज शुक्ल का प्रचार करने क्षेत्र में आए थे। संयोग से मैं भी उनके साथ जीप में बैठकर चुनाव प्रचार में चला गया। मुनीश्वर दत्त लोगों से मिलते और पार्टी को वोट देने के लिए प्रेरित करते। सबसे बड़ी बात यह कि वह हर तीसरे व्यक्ति से उनके परिवार के सदस्यों का नाम लेकर हालचाल भी ले रहे थे, जैसे कोई परिवार का मुखिया हाल लेता है, वह भले ही दूसरे पार्टी का कार्यकर्ता ही क्यों ना रहता हो।
किसी पार्टी की कमियां नहीं केवल कांग्रेस की नीति बताने पर जोर
किसी पार्टी की कमियां गिनाने के बजाय वह कांग्रेस की नीति बताते, आगे बढ़ जाते। उनके साथ न कोई लंबा काफिला था और न ही प्रचार का कोई भोंपू। इसी तरह सुवंसा बाजार के पेशे से चिकित्सक डाॅ. प्राणचंद्र मिश्रा वर्ष 1967 के चुनाव की याद ताजा कराते हैं। जब बीरापुर विधानसभा से जनसंघ प्रत्याशी सत्यनारायण गुप्ता के समर्थन में रानीगंज की लाला की बाग में एक सभा में भाजपा के शीर्ष नेता अटल बिहारी बाजपेयी आए थे। पूरे समय उनका व्यकतव्य राष्ट्रवाद पर फोकस था, बीच-बीच में चुटकला सुनाते, लोग हंस-हंस कर लोटपोट हो जाते। किसी की बुराई किए बिना लोगों को मंत्रमुग्ध कर दिया था। यह ऐसा दौर था और ऐसी विभूतियां थीं, जिन्हें सुनने के लिए लोग दिन भर एक पैर पर खड़े रहते, तब भाड़े के श्रोता व भीड़ नहीं थी, अब तो सबकुछ ठेके पर हो चला है, जिसकी जितनी ठेकेदारी, उसकी उतनी भागेदारी।