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Ramadan-2020 : उठो ऐ रोजदारों...सहरी का वक्त हो गया, अब नहीं गूंजती फकीरों की ये आवाज Prayagraj News

रमजान में सहरी के लिए रोजेदारों को जगाने की समृद्ध परंपरा रही है। पूर्व में रोजेदारों को रात के अंधेरे में फकीर उठाते थे। फकीरों का दल दरवाजों पर पहुंच कर ढपली बजाते थे।

By Brijesh SrivastavaEdited By: Published: Tue, 28 Apr 2020 12:15 PM (IST)Updated: Tue, 28 Apr 2020 12:15 PM (IST)
Ramadan-2020 : उठो ऐ रोजदारों...सहरी का वक्त हो गया, अब नहीं गूंजती फकीरों की ये आवाज Prayagraj News
Ramadan-2020 : उठो ऐ रोजदारों...सहरी का वक्त हो गया, अब नहीं गूंजती फकीरों की ये आवाज Prayagraj News

प्रयागराज, जेएनएन। उठो ऐ रोजेदारों... सहरी का वक्त हो गया है। ऐ मोमिनों, नींद से नमाज बेहतर है। मंगता तुम्हारे दरवाजे पर तुमको जगाने आया है। ढप-ढप-ढप (ढपली की आवाज)...। ऐ सोने वालों, फकीर दे रहा है अल्लाह का पैगाम। उठो सहरी करो। ढप-ढप-ढप (ढपली की आवाज)...। नमाज फर्ज है ए शहर के वासियों। अल्लाह के बंदों, उठो...। माह-ए-रमजान में अब फकीरों की ऐसी आवाज अलसुबह नहीं गूंजती।

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अंधेरी गलियों में फकीरों की टोलियां घूमती थीं

सिर पर टोपी, गले में हरे रंग का गमछा और मोतियों की माला के साथ तन पर धोती कुर्ता। किसी के हाथ में ढपली तो कोई ढोलक लिए हुए। बस इतना ही लिबास था उन फकीरों का, जो रमजान की रातों में सोए हुए लोगों को सहरी के लिए जगाने उनके दरवाजे-दरवाजे जाया करते थे। अंधेरी गलियों में फकीरों की टोलियां घूमती थीं। पुराने शहर में फकीरों का समूह अलग-अलग क्षेत्रों के लिए गढ़ी की सरांय से रवाना होता था।

इलाहाबाद मोहर्रम झूला कमेटी के अध्यक्ष बोले

इलाहाबाद मोहर्रम झूला कमेटी के अध्यक्ष गुलाम रसूल कहते हैं कि वे 73 साल के हो चुके हैं। रमजान में सहरी के लिए उन्होंने फकीरों को आवाज लगाते करीब 50 साल तक देखा है। वह परंपरा उससे भी बहुत पहले की रही है। कहते हैं कि फकीरों के आने की परंपरा खत्म होने के बाद लोग छतों पर लाउडस्पीकर लगवाने लगे। अब वह सब इतिहास हो गया है।

चौक जामा मस्जिद इंतजामिया कमेटी के सदस्य ने कहा

चौक जामा मस्जिद इंतजामिया कमेटी के सदस्य मोहम्मद आजम बताते हैं कि मोबाइल फोन आने के कुछ समय बाद ही फकीरों के मोहल्ले में आने की परंपरा लुप्त होने लगी थी। चांद रात में लोग उन फकीरों के पास पहुंचकर फितरा और जकात देते थे। मोहम्मद आजम ने बताया कि यह परंपरा अब इतिहास हो गई है।


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