अनिर्णय पर निर्णय
लोकायुक्त की नियुक्ति पर दो साल से चले आ रहे अनिर्णय पर आखिरकार निर्णय आ गया। सुप्रीम कोर्ट ने सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति संजय मिश्र को नया लोकायुक्त नियुक्त करते हुए उम्मीद जताई है कि उनके नाम पर सभी में सहमति बनेगी।
लोकायुक्त की नियुक्ति पर दो साल से चले आ रहे अनिर्णय पर आखिरकार निर्णय आ गया। सुप्रीम कोर्ट ने सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति संजय मिश्र को नया लोकायुक्त नियुक्त करते हुए उम्मीद जताई है कि उनके नाम पर सभी में सहमति बनेगी। कहते हैं ‘अंत भला तो सब भला’ लेकिन इस मामले में अंत तभी भला हो सकता है जब दो साल से लंबित नियुक्ति प्रकरण से जुड़ी कसैली यादों और सुप्रीम कोर्ट की गंभीर टिप्पणियों के आलोक में भविष्य के लिए सीख ली जाए। सुप्रीम कोर्ट ने प्रकरण पर सुनवाई के दौरान कई बार गंभीर टिप्पणियां कीं। यह स्वयं में अभूतपूर्व है कि लोकायुक्त जैसी संस्था, जिसकी नियुक्ति की एक विधि सम्मत प्रक्रिया पूर्व से ही निर्धारित है, उसे दरकिनार कर सुप्रीम कोर्ट को नियुक्ति करनी पड़ी। इसके पीछे सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी, ‘राज्य के यह हालात थे कि लोकायुक्त बनाने में सालों लग रहे थे और इसके कारण ही पुराना लोकायुक्त दस साल तक काम करता रहा। ..यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि एक साधारण से मामले में यूपी के संवैधानिक पदाधिकारी एक राय नहीं बना पाए,’-स्वयं ही सारी स्थिति स्पष्ट कर देती है।1लोकायुक्त नियुक्ति प्रकरण पर परिस्थितियां जिस रूप में अंजाम तक पहुंची वह सबके सामने है लेकिन यह स्थिति क्यों उत्पन्न हुई, इस पर प्रदेश की उन सभी संवैधानिक संस्थाओं को सोचने की जरूरत है जो सर्वोच्च अदालत की टिप्पणी के दायरे में हैं। लोकायुक्त पद से व्यापक जनाकांक्षाएं जुड़ी हैं। यह वह संस्था है जिससे अपेक्षा की जाती है कि मंत्रियों, विधायकों सहित शीर्ष स्तर पर बैठे लोकसेवकों के भ्रष्टाचार की जांच करेगी और दोषियों पर कार्रवाई की संस्तुति करेगी। यदि उसकी नियुक्ति में इस प्रकार से देरी होती है तो इस संस्था के प्रति जनता का विश्वास भी भंग होता है। यह स्वीकार करने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए कि हाल के वर्षो में प्राय: सभी संवैधानिक संस्थाओं में गिरावट आई है। इन संस्थाओं के आदर्श पुरुषों से उम्मीद की जाती है कि वह गिरावट को रोकेंगे लेकिन सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियां किसी अन्य प्रवृत्ति की ओर ही इशारा करती हैं। अनिर्णय की स्थिति के पीछे की मंशा पर भी सवाल है। एक योग्य ईमानदार व्यक्ति की तलाश में 18 महीनों तक इंतजार करना पड़े तो चयनकर्ताओं पर सवाल उठेंगे ही। उम्मीद ही की जा सकती है कि भविष्य में ऐसे अनिर्णय से फिर सामना न हो।
(स्थानीय संपादकीय, उत्तर प्रदेश)