संवेदनाओं को शब्दों में ढालना एवं पिरो लेना ही कविता Prayagraj News
कविता केवल कविता ही नहीं होती बल्कि यह मानवीय मंत्र है जिससे मानव सही मायने में इंसान बनने की तरफ अग्रसर होता है। ( शैलेंद्र मधुर साहित्यकारप्रयागराज )
प्रयागराज,जेएनएन। भारतीय समाज ऋग्वैदिक काल से साहित्य संस्कार और कला के लिए अप्रतिम माना गया है जो संस्कार के साथ संवेदना को भी मनुष्य में जीवित करने की बात करता है। संवेदनाओं को शब्दों में ढालना एवं पिरो लेना ही कविता है। कविता केवल कविता ही नहीं होती बल्कि यह मानवीय मंत्र है जिससे मानव सही मायने में इंसान बनने की तरफ अग्रसर होता है। यही कविता का प्रधान कर्म भी है। रचनाकार हमेशा मानवता के पक्ष में ही कविता लिखता है।
अमूर्त चिंतन से प्राप्त होती है कविता
मानवीय भाव से हटकर वह कविता का सृजन नहीं कर सकता, समय के चक्र के साथ कविता ने भी अपनी शैली भाषा और कहन को स्वीकार किया है, कविता एक सृजनात्मक गुण है जो अमूर्त चिंतन से प्राप्त होता है राग द्वेष से दूर मानवीय संवेदना को स्पर्श करते हुए जो स्वर बाहर आते हैं वह कविता है अर्थात कविता मात्र शब्दों का संयोजन ही नहीं यह एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति को अ विलंब जोडऩे की कड़ी है ।। मनुष्य ने पहली कविता कब लिखी यह बता पाना बहुत कठिन है। परंतु संस्कृत के महाकवि वाल्मीकि के बारे में कहा जाता है कि प्रथम कव्याभिव्यक्ती उन्हीं के स्वर से हुई है, मुख से प्रेम में पड़े हुए क्रौंच पक्षी जो सहसा बहेलिया के द्वारा घायल हुए थे, उनकी प्रेम और बिरह वेदना को देखकर ही वाल्मीकि जी के मुख से कविता का प्रस्फुटन हुआ।
करुणा से हुआ काव्य का उदय
गुरु वाल्मीकि ने जब भरद्वाज ऋषि जी से कहा यह जो मेरे शोकाकुल हृदय से फूट पड़ा है, उसमें चार चरण हैं। हर चरण में अक्षर बराबर संख्या में हैं और इनमें मानो तंत्र की लय गूंज रही है। अत: यह श्लोक के अलावा और कुछ हो ही नहीं सकता। करुणा में से काव्य का उदय हो चुका था जो वैदिक काव्य की शैली भाषा और भाव से एकदम अलग था नया था। चंदवरदाई को हिंदी का पहला कवि और उनकी रचना पृथ्वीराज रासो को हिंदी की पहली रचना होने का सम्मान प्राप्त है, रासो में वर्णित चंदबरदाई के मुख से उदृत पंक्तियों को सुनकर पृथ्वीराज ने अपने अपमान का बदला लिया था , चंद्रबरदाई ने तत्काल एक दोहे में पृथ्वीराज को यह बता दिया की गोरी कहां एवं कितनी ऊंचाई पर बैठा है।
चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमान।
ता ऊपर सुल्तान है, मत चूको चौहान ।।
कविताओ से वीरों को उत्साहित करते थे कवि
उस समय के राज आश्रित कवि अपने राजाओं के शौर्य पराक्रम और प्रताप का वर्णन अनूठी उक्तियों के साथ किया करते थे और अपनी वीरो उल्लास भरी कविताओ से वीरों को उत्साहित किया करते थे, वीरगाथा काल में ही कविता की वाचिक परंपरा का शुभारंभ हो चुका था। इस काल की वाचिक परंपरा की काव्य में श्रृंगार का थोड़ा मिश्रण रहता था, पर गौड़ रूप में, प्रधान रस वीर ही रहता था श्रृंगार केवल सहायक के रूप में रहता था। इस प्रकार इन कार्यों में अनुकूल कल्पित घटनाओं की बहुत अधिक योजना रहती थी।
कविता संपूर्ण अनुभूति से करा सकती है लक्ष्य का भेद
कविता की वाचिक परंपरा का इससे बड़ा कोई और उदाहरण नहीं मिल सकता अर्थात कोई भी कविता मुखारविंद से जब सही ढंग से निकली हो तो वह संपूर्ण अनुभूति के साथ लक्ष्य भेद तक करा सकती है।। वीरगाथा काल से चलकर कविता जब भक्ति काल में पहुंची तो उसने अपने साहित्य को अत्यंत समृद्ध होता पाया इसीलिए हिंदी साहित्य का स्वर्ण काल भी कहा गया। सामाजिक परिवर्तन में भी मंचीय कविता में पुरानी परंपरा रही है। इस पर चिंतन करें तो हमारे पास भक्ति युग के कवि कबीर दिखते हैं जिन्होंने केवल अपने कविता के वाचन से सामाजिक क्रांति पैदा कर दी थी। यही परंपरा रैदास की भी थी जिन्होंने सामाजिक परिवर्तन एवं मानवीय संवेदना के परिशीलन के लिए सहज रूप से ही युक्ति करने का प्रयास किया। ( मन चंगा तो कठौती में गंगा)
स्वतंत्रता आंदोलन में कविता कर्म से एक नई दिशा प्रदान की
यदि हम मंचीय कवियों की बात करें तो अनेक ऐसे कवि मिलते हैं जिन्होंने सामाजिक परिवर्तन के साथ-साथ भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में भी अपने कविता कर्म से एक नई दिशा प्रदान की। भारतेंदु हरीश चंद जी का नाम ऐसे कवियों में प्रमुखता से आता है,चाहे मां भारती की उपासना हो या फिर देश प्रेम के मुखर गीत हों या फिर स्वतंत्रता के पश्चात अपनी भाषा के लिए उपजा प्रेम हो, इन विषयों पर उनकी कविताएं मुखर होकर जनमानस के समक्ष प्रस्तुत हुई।
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा ज्ञान के मिट त न हिय को सूल।।
हिंदी उर्दू कवि एवं शायर एक साथ मंच पर करते थे कविता पाठ
उस समय हिंदी उर्दू कवि एवं शायर एक साथ मंच पर कविता करते थे ,सम्मिलन कविताओं का दौर था, प्रिंटिंग प्रेस खुलने के कारण कविताओं की मुद्रित प्रतियां आसानी से प्राप्त होने लगी थी। हमेशा से साहित्यकारों, कवियों और बुद्धिजीवियों ने हिंदी साहित्य एवं मंच को अलग-अलग रक्खा,किन्तु यह यथार्थ नहीं रहा ,उसका कारण प्रमुख यह की बहुत से ऐसे रचनाकार हैं या थे, जिन्होंने मंचीय कविता से जहां श्रोताओं को आनंदित किया, या संदेश दिया, वहीं देश की दिशा तथा दशा को भी परिवर्तित करने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है। ऐसी में हिंदी साहित्यकारों की मान्यता कहीं न कहीं अलग दिखती है, परंतु यह भी सत्य है कि साहित्यकारों की भाषा शैली एवं कविताएं मंचीय कविता से बिल्कुल अलग होती हैं, कुछ रचनाकार इन दोनों का पालन करते हुए बखूबी कार्य कर रहे, करते रहे हैं, करते थे, परंतु आज इसका अभाव है।
कविता दिल से निकल कर दिल तक पहुंचती है
सतही लोकप्रियता एवं व्यवसायिक रूप से अपने को कैसे प्रस्तुत किया जाए , मंच की कविता की मर्यादा को निचले स्तर पर लाकर छोड़ दिया है, जिसमें निश्चित रूप से सुधार की आवश्यकता है,। साहित्यकार हो या फिर मंचीय कवि उन्होंने साहित्य और अपनी कविता के माध्यम से न देश के सार्वजनिक मंचों पर भी प्रभाव छोड़ा है, कवियों और उनकी मंचीय कविता ने आज के बदलते परिवेश में कविता ने मनोरंजन को बल दिया,वहीं यहां गंभीर और जीवंत कविता ने भी मंच से श्रोताओं को दिशा देने का कार्य किया है, कविताएं समाज को बनाती हैं। कविता दिल से निकल कर दिल तक पहुंचती है। शायद यही कारण है कि लोकप्रियता के पायदान पर अग्रिम पंक्ति में कविता खड़ी है और आज भी लोगों के बीच प्रासंगिक है, कुछ विचारकों का कहना है, जैसे डॉ नामवर सिंह जी, कहते हैं, जैसे विचार होते हैं वैसे ही हमारे भाव भी बन जाते हैं जबकि भारतीय तत्व दर्शन यह कहता है कि
भाव के अनुरूप बनते हैं विचार
मनुष्य में पहले भाव पैदा होते हैं फिर उसी के अनुरूप विचार बनते जाते हैं कुल मिलाकर भाव और विचार के सम्मिश्रण से ही मानव सभ्यता का विकास होता है, हम यह कह सकते हैं कि मानव के अंतर वाह्य जगत का नियम बद्ध प्रकटीकरण है कविता। पद्म श्री गोपाल दास नीरज जी ने लिखा है।
( आत्मा के सौंदर्य का शब्द रूप है काव्य, मानव होना भाग्य है कवि होना सौभाग्य) ।।
कविता की सबसे सुंदर परिभाषा गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखी है।
(जब हम सब कुछ जान लेते हैं तो पता चलता है कि कुछ भी नहीं जानते। यह तत्व कविता है)।
अपनापन और भाईचारा का एकमात्र उपकरण है कविता
अपनापन भाईचारा चाहिए तो इसका एकमात्र उपकरण कविता है। यही युक्ति संपूर्ण भारत के लिए भी है। यदि हम प्रयाग की बात करें तो यह पौराणिक काल से साहित्य की धरती रहा है जिसने नित नए आयाम संवेदना के क्षेत्र में बनाए हैं आज के बदलते परिवेश में माननीय कवियों का सिलसिलेवार अगर नाम लिया जाए तो हिंदी उर्दू भी दोनों जगहों पर प्रमुख शायर कवि देखने को मिलते हैं। हिंदी कविता का एक महत्वपूर्ण स्कूल राष्ट्रीय स्तर पर खुल चुका है। गद्य कविता और मंचीय कविता दोनों में उत्कर्ष और आम जन का विश्वास प्राप्त किया है। प्रामाणिक आधारों पर यह कहा जा सकता है कि नई कविता का सबसे बड़ा केंद्र हिंदी साहित्य का क्षेत्र ही बना, नई कविता के क्षेत्र में भी हिंदी के श्रेष्ठ कवि हुए, साहित्य में अभिरुचि लेने वाले लोगों की संख्या कदाचित कम हुई है या उन्हें कवियों के विषय में उचित ज्ञान नहीं मिल पा रहा है अत: यह मेरे कवि धर्म के कारण आज आवश्यकता प्रतीत होती है कि जो मंचीय कवि है, जिनकी कविताएं तो श्रोताओं के मुख पर हैं। परंतु वह मुद्रित नहीं है अथवा लोग उन कवियों को सही रूप से कविता के साथ पहचान नहीं पा रहे। इस हेतु अध्ययन की आवश्यकता है।
समाज व देश का जीवंत इतिहास बताती है कविता
किसी भी कविता को समझने के लिए उसके कार्य को एवं उद्देश्य को समझना आवश्यक होता है कविताएं किसी भी समाज व देश का जीवंत इतिहास बताती हैं किसी भी समाज की चेतना को समझने के लिए राष्ट्र के उत्थान में उनकी भूमिका को समझने के लिए कविता का अध्ययन अपरिहार्य है, कॉल सापेक्ष कविता की रचना धर्मिता में भी निरंतर परिवर्तन होता रहा है इसका प्रत्यक्ष उदाहरण आदि काल से लेकर आज तक जिसमें अतुकांत कविताएं अतीत और गधे का भी भी समृत हो चुके हैं कविता की एक विकास यात्रा का प्रदर्शित करते हैं। व्यक्ति परिवर्तन एवं समाज परिवर्तन दोनों में अन्योन्याश्रित संबंध है। जिसका प्रत्यक्ष उदाहरण चारण काल से लेकर नवजागरण काल से लेकर नवगीत तक दिखाई देता है ।
अंधेरे में दिये की लौ के समान जलते है कवि
समय की आवश्यकता अनुसार कवियों ने अपनी रचना धर्मिता को परिवर्तित किया और समाज को एक नई दिशा देने का अत्यधिक प्रयास किया जब-जब समाज में बदलाव की जरूरत हुई। सर्वाधिक आंदोलित साहित्यकार और कवि वर्ग ही दिखाई पड़े, इसका अर्थ यह है कि कवियों ने सदैव समाज को चाहे वह मंच हो या पठनीय वस्तु एक दिशा निर्देश दिया है और संबल प्रदान करने का कार्य किया है। सामाजिक असंतोष हो या समाज में भ्रष्टाचार हो, असामान्य सी स्थिति पैदा हो रही हो, जन सामान्य निष्क्रिय और निस्सहाय हो रहा हो, तो यह कवि ही है जो अंधेरे में दिए की लौ के समान जलते हैं। और समाज को इन सभी विपरीत परिस्थितियों से बाहर ना भी निकाल सके तो एक सार्थक प्रयास कर उनके अंदर की जन्म ले रही और संवेदनशीलता और सहायता को संवेदनशीलता एवं ऊर्जा में परिवर्तित कर देते हैं।