आधुनिकता की भीड़ में गुमनाम होती जा रही नौटंकी
इलाहाबाद : हाईटेक युग के चकाचौंध के युग में लोक कला गुमनाम होती जा रही है। पाश्चात्य के अंधानुकरण में फंसकर आज का युवा अपनी परंपरागत संस्कृति को भूलता जा रहा है। इस कला के संवर्धन के लिए सरकार भी प्रयास नहीं कर रही है, इससे कलाकारों में क्षोभ व्याप्त है।
इलाहाबाद : दो दशक पहले का समय याद करें तो नौटंकी का नाम सुनते ही लोगों का मन जिज्ञासा के समंदर से लबालब हो जाता था। उस दौर में मनोरंजन का सबसे अच्छा साधन नौटंकी ही थी। नगाड़े व हारमोनियम की आवाज सुनते ही इसे देखने के लिए पूरी जनता उमड़ पड़ती थी। कलाकारों का भी उत्साह बढ़ाया जाता था। इसमें पुरानी कहानियों का चित्रण किया जाता रहा है, जो अपने आप में प्रेरणा का स्रोत भी होता था। हर नाटक मे समाज के प्रति संदेश देता था। किसी फिल्मी कलाकार से कम नहीं आंके जाते थे। नौटंकी देखने के लिये लोग मारामारी करते थे।
उस दौर में नौटंकी देखने के लिये नगरों, महानगरों में टिकट खरीदनी पड़ती थी। घंटों लोगो को लाइन लगानी पड़ती थी। वहीं आधुनिकता की भीड़ में अब यह सांस्कृतिक विधाएं गुम होती जा रही हैं। जैसे-जैसे समय आगे बढ़ रहा है, पाश्चात्य सभ्यता ग्रामीण समाज पर भी हावी होता जा रहा है। आजकल युवा मोबाइल की दुनिया में सिमट गए हैं। अब टीवी व मोबाइल मनोरंजन का साधन बन चुके हैं। पुराने कलाकार ही इस विधा के सारथी बनकर रथ को दौड़ा रहे हैं। सरकार भी न तो इन्हें संरक्षण दे रही है और न ही कलाकारों को प्रोत्साहित कर रही है। नए कलाकार वैरायटी शो की तरफ बढ़ रहे हैं। इन विलुप्त होती विधाओं को बनाये रखने के लिए संगठन बना प्रचार-प्रसार कर सरकार से इस विधा को संरक्षण देने की मांग कर रहे हैं। हालांकि उन्हें सफलता नहीं मिल रही है जिससे कलाकार निराश हो रहे हैं। हालंकि आज भी शादी समारोहों में यदा-कदा नौटंकी का आयोजन होता है जिसे देख पुरानी यादें ताजा हो जाती है।
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आधुनिकता के दौर में गुमनाम हो रही विधा
लोक कलाकारों की मानें तो आवश्यकता है इसे संरक्षण देते हुए बढ़ाने की, जिससे इस विधा के नए कलाकार पैदा हों। क्षेत्रीय कलाकार शोभा लाल यादव, झल्लू, रामचंद्र, राजकिशोर कहते हैं कि भारतीय संस्कृति से समाज सहित सरकार का भी मोह भंग हो चुका है जिससे समाज गर्त में गिरता जा रहा है। नौटंकी के कलाकार वर्तमान में समाज की समस्यायों को देखते हुये खेल खेला जाता था जिससे लोगो को अंदर से झकझोर देती थी। अच्छी प्रेरणा देती थी जिससे समाज का भला होता था इसे प्रस्तुति करने के लिये कलाकारों को काफी मेहनत करनी पड़ती थी। वहीं लोग भाव विभोर हो जाते थे। अब लोग फिल्मों, डीजे डांस जैसे फूहड़ खेल दृश्य देख अपराध कर रहे हैं।