'अमृतफल' मांग रहा है सुनहरा पल, सात दशक में बड़ी इकाई नहीं लगी
25150 हेक्टेयर क्षेत्रफल में दशक भर पहले प्रतापगढ़ में उपज ली जाती थी। आंवले से ही जिले की पहचान है लेकिन ध्यान न देने के कारण उत्पादन का दायरा सिमटने लगा है।
प्रतापगढ़/प्रयागराज : कभी इस दल, कभी उस दल। मंच किसी का भी हो, खूब गूंजा है यहां 'अमृत फल'। अमृत फल यानि आंवला। आयुर्वेद इसे औषधीय गुणों की खान बताता है। आंवले की उपज के लिए ख्यात इस जिले में न उत्पादकों की किस्मत संवरी न उद्यमियों की। योगी आदित्यनाथ सरकार की महत्वाकांक्षी योजना एक जिला एक उत्पाद (ओडीओपी) में आंवले को शामिल किया गया तो बदलाव की एक और आस बंधी। अब समय ही बताएगा कि ओडीओपी इस अमृत फल के दिन कैसे संवारता है। इसका सुनहरा पल (दौर) आएगा भी अथवा नहीं। फिलहाल आलम यह है कि इसकी उपज कम हुई है।
अमृत फल को लेकर दिखाए गए सब्जबाग
चुनावी दौर में अमृत फल ने कई नेताओं की किस्मत जरूर संवारी है। सब्जबाग दिखाकर। जीतने के बाद वह न आंवले के बाग के पास गए, न किसानों व उद्यमियों का हाल पूछने की जहमत उठाई। यह वनोपज की श्रेणी में है और उत्पादकों को इस पर टैक्स भी देना पड़ता है। उम्मीद है कि 17 वीं लोकसभा के चुनाव में भी आंवला सियासी मंचों पर गूंजेगा। जिले की पहचान को बचाने की कोशिशें जुबानी ही हैं। आंवले की दशा और उसके उत्पादकों की हालत पर पेश है खास रिपोर्ट।
आंवले की खेती गोड़े गांव से हुई थी शुरू
ठीकठाक तो कह पाना मुश्किल है, लेकिन पुरनिए (बुजुर्ग) बताते हैं कि राज रजवाड़ों के गढ़ में सबसे पहले आंवले की खेती नगर कोतवाली क्षेत्र के गोड़े गांव से शुरू हुई। धीरे-धीरे आसपास के कमास, चिलबिला, ताला, पट्टी, मंगरौरा, अंतू, जगेसरगंज, रानीगंज समेत दर्जनों गांवों में बड़े पैमाने पर होने लगी। दशक भर पहले जिले में 25150 हेक्टेयर क्षेत्र फल में आंवले की खेती होती थी। फिर सही कीमत नहीं मिलने की वजह से किसानों का इससे मोहभंग होने लगा। मौजूदा दौर में आंवले के बाग करीब केवल 15 हजार हेक्टेयर क्षेत्रफल में ही बचे हैं। पहले अनुमानित एक लाख 12 हजार 135 टन आंवले का उत्पादन होता था। अब केवल 50 से 60 हजार टन उपज ही रह गई है।
मेहनत की कीमत की आस अधूरी
जिले में सबसे अधिक आंवला सदर तहसील क्षेत्र में होता है। गोड़े, कमास, गोबरी, पाराहमीदपुर, अधारपुर, कोलबजरडीह, दांदूपुर दौलत, उमरी, संग्रामपुर, अंतू, चतुरपुर, कल्याणपुर, बझान, तेजगढ़, गड़वारा, शिवराजपुर, चौरा, महुली, ओझला, ताला, जैतीपुर कठार, उपाध्यायपुर आदि गांव इसके लिए ख्यात हैं। आंवला उत्पादक सत्य कुमार सिंह, अश्विनी सिंह, वीरेंद्र प्रताप सिंह, मंगल सिंह, शिवमूरत सिंह, छुट्टन सिंह, बसंत सिंह, दांदूपुर दौलत, अंजनी सिंह, राज नागेंद्र बहादुर सिंह, रमेश सिंह, कुंवर श्रीवास्तव, शिव शंकर पटेल, कृष्णदेव सिंह, हरिशंकर मिश्र, रामराज, राकेश शुक्ला, समर बहादुर सिंह, दयाशंकर तिवारी, अमर बहादुर सिंह, राम शिरोमणि तिवारी, तीरथ राज मिश्र और ओम प्रकाश शुक्ला शासन प्रशासन की उपेक्षा से चिंतित हैं। दैनिक जागरण ने कुरेदा तो कहने लगे कि हम लोग गाढ़ी मेहनत व लागत से आंवला तैयार करते हैं। उपज तैयार होने के बाद उचित मूल्य नहीं मिल पाता।
बैंक के चक्कर में चकराए
प्रदेश सरकार ने सितंबर 2018 में ओडीओपी योजना यानी एक जनपद एक उत्पाद योजना लांच की थी। उद्देश्य यह था कि जिस जिले की जो वस्तु सबसे अधिक प्रसिद्ध है उसे और उससे जुड़े उत्पाद को बढ़ावा दिया जाय। प्रतापगढ़ के लिए आंवले का चयन हुआ। मौजूदा वित्तीय वर्ष में आंवला उत्पाद उद्योग को बढ़ावा देने के लिए 53 लाभार्थियों को ऋण देना था। साक्षात्कार हुआ, केवल 10 लोगों को 1.20 करोड़ रुपये का ऋण मिला। अब तक 43 लाभाििर्थयों को बैंक से लोन नहीं मिला। बार-बार दौडऩे के बाद लाभार्थी हताश हैं।
दहेज में मिले थे आंवले के पौधे
जिले में आंवले को लाने का श्रेय राजा प्रताप बहादुर ङ्क्षसह को है। उनको इसके पौधे दहेज में मिले थे। राजा ने उस पौधे को गोड़े, चिलबिला में कुछ लोगों को दिया। धीरे-धीरे करके आंवले का विस्तार होता गया। शासन ने 1980 में जिले में आंवला विकास अधिकारी का पद सृजित किया था। हालांकि 20 साल बाद इसे खत्म भी कर दिया गया। अब भी आंवले को वन उपज माना जाता है, किसानों को वन कर भी अदा करना होता है, जो 2.5 फीसद होता है।
विदेशों में भी छाया है उत्पाद
विदेशों में भी आंवले का उत्पाद छाया हुआ है। कनाडा, दुबई, कतर, आस्ट्रेलिया, अमेरिका समेत देशों में आंवला उत्पादों की मांग है। वहां मुरब्बा, कैंडी, चूरन की अधिक डिमांड है। यहां का उत्पाद देश के कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल, त्रिचनापल्ली, राजस्थान, मुंबई भी भेजा जाता है। राजस्थान की अपेक्षा प्रतापगढ़ का आंवला अधिक टिकाऊ होता है। राजस्थान का आंवला काफी हल्का होता है। हां बड़ा जरूर होता है। केवल एक से दो दिनों तक ही रखने योग्य होता है। उसके बाद यह खराब हो जाता है। इसकी अपेक्षा प्रतापगढ़ का आंवला महीनों तक रखने के बाद भी खराब नहीं होता है।
कहते हैं उद्यमी
आंवले के उद्योग को बढ़वा तभी मिलेगा जब उत्पादक खुद आगे आएंगे। मेहनत करेंगे और उद्योग लगाएंगे। सरकार की मदद पर कम भरोसा करे, तभी जाकर आंवले का उद्योग जिले में विकसित हो सकेगा।
-आलोक खंडेलवाल, उद्यमी पल्टन बाजार
एक जनपद एक उत्पाद योजना आंवला संजीवनी साबित हो रही है। आंवले के तमाम उद्योग लगाए गए। काफी हद तक बेरोजगारी दूर हुई है। फायदा भी मिल रहा है। योजना भी सफल हो रही है। लोग योजना से जुड़ भी रहे हैं।
-चंद्र प्रकाश शुक्ला, उद्यमी दहिलामऊ
जिले की पहचान आंवले से है। फिर भी शासन-प्रशासन की तरफ से कोई ठोस पहल आंवला किसानों के लिए नहीं की गई। काफी लिखा-पढ़ी के बाद भी यह वन उपज से बाहर नहीं हो सका। किसानों को वन विभाग को टैक्स देना पड़ता है।
-श्याम लाल खंडेलवाल, उद्यमी, चौक
किसानों का सुनिए दर्द
सरकार की उपेक्षा के चलते जिले में आंवला विकसित नहीं हो पा रहा है। नुकसान से आजिज आकर किसान आंवले के बाग खत्म करके फसल बोने लगे है। जिम्मेदार अफसर किसानों के दर्द को नहीं महसूस कर पा रहे हैं।
-असीम सिंह, गोड़े
पहले बिचौलिए की दखल व आंवले का रेट कम होने से काफी नुकसान उठाना पड़ता था। जितनी मेहनत उपज तैयार करने में लगती थी, उसके एवज में उतना दाम नहीं मिल पाता था। करीब दो साल से आंवले का अच्छा दाम मिल रहा है।
-दुर्गा प्रसाद मिश्र, किसान बघुमार
काफी मेहनत के बाद आंवले का उचित दाम नहीं मिलता था। इससे काफी निराशा होती थी। हार नहीं मानी और मेहनत जारी रही। इसका नतीजा यह रहा कि साल भर से आंवले का अच्छा दाम मिलने लगा। इससे काफी सहूलियत मिली।
-छोटे लाल मिश्र, किसान, जगेसरगंज
कहते हैं जिम्मेदार
ओडी ओपी योजना में जिले से आंवले का चयन हुआ। तमाम आंवले के उद्योग भी लगे। काफी लोग उद्योग से जुड़े। लोगों को रोजगार से जोड़ा गया। समस्या यह आ रही है कि बैंक से समय पर ऋण नहीं मिलता। यह हो जाए तो अच्छा रहेगा।
-रामजी, उपायुक्त जिला उद्योग
जिले में आठ आंवला इकाईयों को स्थापित करने का लक्ष्य मिला है। इसके लिए 56 लाख रुपये का बजट मिल चुका है। इस योजना का नोडल उपायुक्त उद्योग को बनाया गया है।
-रणविजय सिंह, जिला उद्यान अधिकारी