साहित्य में हमेशा ही जिंदा रहेगा इलाहाबाद : ममता कालिया
इन दिनों इलाहाबाद का नाम बदलने पर बहस छि़ड़ी हुई है। प्रयागराज नाम होने को लेकर प्रख्यात साहित्यकार ममला कालिया का कहना है कि साहित्य में हमेशा इलाहाबाद जिंदा रहेगा।
प्रयागराज : इलाहाबाद का नाम फिर से प्रयागराज भले ही कर दिया गया हो पर प्रख्यात साहित्यकार ममता कालिया का मानना है कि दोनों नाम चलते रहेंगे, एक-दूसरे को चुनौती देते हुए। उनका कहना है कि जैसे इतनी चीजों से लोगों ने समझौता कर लिया है नाम बदलने से भी कर लेंगे। इतिहास से इलाहाबाद का नाम मिटाया जा सकता है पर साहित्य में इलाहाबाद हमेशा जिंदा रहेगा। साहित्य में इलाहाबाद इतनी बार आया है उसे किस रबर से मिटाया जा सकता है?
दैनिक जागरण से दूरभाष पर हुई बातचीत में ममता कालिया ने कहा कि प्रयागराज का पौराणिक महत्व अपनी जगह है। उसे झुठलाया नहीं जा सकता है पर इलाहाबाद ने साहित्य जगत को एक नई पहचान दी है उससे भी इनकार नहीं किया जा सकता है। यहां से महादेवी वर्मा, हरिवंश राय बच्चन, फिराक गोरखपुरी जैसे साहित्यकार हुए हैं। साहित्यकारों की रचनाओं में इलाहाबाद हजारों बार आया है उसे नहीं मिटाया जा सकता है। उनका कहना है कि प्रयागराज नाम बदलने से इलाहाबाद का अस्तित्व नहीं खत्म होगा। वह हमेशा संघर्ष करता अपने वजूद की लड़ाई लड़ता रहेगा।
दादी के चरखे से मिला आइडिया :
ङ्क्षहदी उपन्यास 'दुक्खम-सुक्खम' के लिए ममता कालिया को बुधवार को केके बिरला फाउंडेशन की ओर से 27वां व्यास सम्मान प्रदान किया गया। ममता कालिया ने इस उपन्यास का श्रेय अपने पति साहित्यकार रवींद्र कालिया को दिया है। उन्होंने बताया कि इस उपन्यास की मुख्य पात्र उनकी स्वयं की दादी विद्यावती हैं। यह विचार उन्हीं के कारण उनमें आया। दादी के संघर्षों के बारे में उन्होंने पति रवींद्र कालिया से एक बार डिस्कस किया था। समकालीन विषयों पर लिखने वाली ममता कालिया का मानना था कि आजादी के पहले की इस एक बुढिय़ा पर केंद्रित कहानी में भला आज किसे रुचि होगी? रवींद्र उनकी इस दलील से कभी सहमत नहीं हुए और हमेशा उस उपन्यास के बारे में पूछते रहते थे। क्या हुआ दादी के ऊपर उपन्यास का? ममता कहती हैं कि यदि पति ने इसके लिए इतना प्रेशर न डाला होता तो शायद मैं इस उपन्यास को न लिख पाती। इसपर लिखने का विचार मेरे मन में रह जाता। बताया कि यह उपन्यास मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश के मथुरा की पृष्ठभूमि पर लिखा गया है। महात्मा गांधी के सत्याग्रह से प्रेरित होकर उनकी दादी विद्यावती उस समय चरखा चलाया करती थीं। उस समय महिलाओं का चरखा चलाना अच्छा नहीं माना जाता था। इसको लेकर समाज में होने वाले द्वंद्व को बखूबी उभारा गया है। उनका मानना है कि आज भले ही नारी मुक्ति आंदोलन 'मी टूÓ तक पहुंच गया है, लेकिन इसकी शुरुआत गांधी जी ने दशकों पहले चरखे के माध्यम से कर दी थी।