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इलाहाबाद हाई कोर्ट ने महत्वपूर्ण निर्णय, जमीन पर कब्जा होने मात्र से नहीं हो सकता मालिकाना हक

हाई कोर्ट ने कहा लंबे समय तक किसी संपत्ति का उपयोग करने की छूट या संपत्ति के स्वामी की मौन स्वीकृति से कब्जा होने मात्र से उस व्यक्ति का संपत्ति पर अधिकार सृजित नहीं होता है।

By Umesh TiwariEdited By: Published: Tue, 31 Mar 2020 07:32 PM (IST)Updated: Tue, 31 Mar 2020 07:32 PM (IST)
इलाहाबाद हाई कोर्ट ने महत्वपूर्ण निर्णय, जमीन पर कब्जा होने मात्र से नहीं हो सकता मालिकाना हक
इलाहाबाद हाई कोर्ट ने महत्वपूर्ण निर्णय, जमीन पर कब्जा होने मात्र से नहीं हो सकता मालिकाना हक

प्रयागराज, जेएनएन। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में कहा है कि लंबे समय तक किसी संपत्ति का उपयोग करने की छूट या संपत्ति के स्वामी की मौन स्वीकृति से कब्जा होने मात्र से उस व्यक्ति का संपत्ति पर अधिकार सृजित नहीं होता है। हाई कोर्ट ने जमींदार द्वारा अपने पुत्र के नाम किए गए जमीन के पट्टे को लेकर पैदा हुए कानूनी विवाद पर कहा कि यदि जमींदार ने संयुक्त परिवार की संपत्ति का एक हिस्सा अपने अवयस्क पुत्र को उसके अभिभावक के माध्यम से पंजीकृत पट्टा दिया है तब यह माना जाएगा की संपत्ति पर उस पुत्र का अकेले अधिकार है। यह उसकी निजी संपत्ति मानी जाएगी। ऐसी संपत्ति को संयुक्त परिवार की संपत्ति नहीं माना जा सकता है।

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यह आदेश न्यायमूर्ति जेजे मुनीर ने वाराणसी के द्वारिका की निगरानी अर्जी को स्वीकार करते हुए दिया है। हाई कोर्ट ने मामले की सुनवाई के बाद अपना निर्णय सुरक्षित कर लिया था। फैसले को लॉकडाउन के दौरान मंगलवार को सुनाया गया। कोर्ट ने उप निदेशक चकबंदी के 30 मार्च 1987 के आदेश को अवैधानिक करार देते हुए रद कर दिया है। उपनिदेशक ने याची के पक्ष में दिए गए चकबंदी अधिकारी और सहायक बंदोबस्त अधिकारी के आदेश को रद कर विपक्षी (याची का भाई मथुरा) के पक्ष में निर्णय दिया था।

दरअसल, वाराणसी जिला के परगना कोलसला अंतर्गत जाटी गांव निवासी जमींदार हरिनंदन की दो पत्नियां दुलारा और बेचनी थी। दुलारा से उनको दो पुत्र द्वारका और मथुरा हुए। 24 अप्रैल, 1923 को हरिनंदन ने अपनी कृषि भूमि का खाता संख्या 287 अपने बड़े पुत्र द्वारिका के नाम पट्टा कर दिया। उस समय नाबालिग होने के कारण द्वारका का नाम उनकी मां दुलारा के साथ राजस्व रिकॉर्ड में दर्ज हो गया और वह 1974 तक उसी के नाम पर दर्ज रहा।

जमींदारी उन्मूलन अधिनियम लागू होने के बाद 1974 में द्वारिका के छोटे भाई मथुरा ने खुद को इस भूमि का साझीदार बताते हुए अपने हिस्से की मांग को लेकर चकबंदी अधिकारी के समक्ष वाद दायर किया। चकबंदी अधिकारी ने उसका दावा यह कहते हुए खारिज कर दिया कि उपरोक्त भूमि अकेले द्वारका के नाम पट्टा की गई है और लंबे समय से उसका नाम राजस्व रिकॉर्ड में दर्ज है। इसके मद्देनजर यह उसकी व्यक्तिगत संपत्ति मानी जाएगी, न की संयुक्त परिवार की।

मथुरा ने चकबंदी अधिकारी के आदेश को सहायक बंदोबस्त अधिकारी के समक्ष चुनौती दी। सहायक बंदोबस्त अधिकारी ने भी उसका दावा खारिज कर दिया। इसके बाद इस फैसले के खिलाफ उपनिदेशक चकबंदी के समक्ष निगरानी दाखिल की गई। उपनिदेशक ने उपरोक्त दोनों अधिकारियों के आदेश को पलटते हुए कहा कि संपत्ति पर मथुरा का भी अधिकार है, क्योंकि वह द्वारिका के साथ संपत्ति के उपभोग में शामिल रहा है। इसके विरोध में द्वारका ने उपनिदेशक चकबंदी के आदेश को हाई कोर्ट में चुनौती दी।

हाईकोर्ट में दोनों पक्षों की दलील सुनने के बाद यह तय किया कि मथुरा संपत्ति के उपभोग में शामिल अवश्य रहा है, लेकिन जमीन का पट्टा अकेले द्वारका के नाम से किया गया था और वह उस पर 1923 से काबिज है। इस दौरान मथुरा ने कभी भी अपना दावा पेश नहीं किया। जमीन के पट्टे के समय मथुरा का जन्म भी नहीं हुआ था, इसलिए यह जमीन द्वारिका की निजी संपत्ति मानी जाएगी। इसे संयुक्त परिवार की संपत्ति नहीं माना जा सकता है।


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