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हत्या के झूठे केस में जेल में बिताए 14 साल, अब इलाहाबाद हाई कोर्ट ने उम्र कैद को रद कर किया बरी

इलाहाबाद हाई कोर्ट ने लगभग 14 साल जेल में बिताने के बाद हत्या के आरोप मे आजीवन कारावास की सजा भुगत रहे कैदी को बरी कर दिया है। सत्र न्यायालय ने बिना ठोस सबूत के पुलिस स्टोरी के आधार पर तीनों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी।

By Umesh TiwariEdited By: Published: Fri, 05 Mar 2021 07:03 PM (IST)Updated: Sat, 06 Mar 2021 07:03 AM (IST)
हत्या के झूठे केस में जेल में बिताए 14 साल, अब इलाहाबाद हाई कोर्ट ने उम्र कैद को रद कर किया बरी
इलाहाबाद हाई कोर्ट ने आजीवन कारावास की सजा भुगत रहे कैदी को बरी कर दिया है।

प्रयागराज, जेएनएन। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने लगभग 14 साल जेल में बिताने के बाद हत्या के आरोप मे आजीवन कारावास की सजा भुगत रहे कैदी को बरी कर दिया है। इसके साथ अन्य दो आरोपियों को भी बरी किया है। ये पहले से जमानत पर बाहर थे। सत्र न्यायालय ने बिना ठोस सबूत के पुलिस स्टोरी के आधार पर तीनों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी।

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यह फैसला न्यायमूर्ति मनोज मिश्र व न्यायमूर्ति एसके पचौरी की खंडपीठ ने बलिया जिला के निवासी मुकेश तिवारी, इंद्रजीत मिश्र व संजीत मिश्र की आपराधिक अपील को स्वीकार करते हुए दिया है। हाई कोर्ट ने कहा कि घटना के समय चश्मदीद गवाहों की मौजूदगी संदेहास्पद है। अभियोजन संदेह से परे आरोप साबित करने में विफल रहा है। सत्र न्यायालय ने साक्ष्यों को समझने में गलती की है।

अभियोजन पक्ष का कहना था कि प्रताप शंकर मिश्र व उनकी पत्नी मनोरमा देवी घर पर कमरे में सोये थे। इनके दो भाई बरामदे में सो रहे थे। पत्नी मनोरमा देवी का कहना है कि आरोपितों ने हाकी, चाकू व पिस्टल से उनके पति ऊपर हमला कर दिया। कोर्ट ने कहा कि मेडिकल रिपोर्ट में शरीर पर हाकी की चोट के निशान नहीं है। गोली गले में लगी है। पत्नी सहित अन्य चश्मदीद के कपड़ों पर खून नहीं है। वहीं, शोर सुनकर हमलावर बाउंड्रीवाल कूदकर भाग गए। उन्हें किसी ने पकड़ने की कोशिश नहीं की। बाउंड्रीवाल कूदकर उन्हें भागते भी किसी ने नहीं देखा। इससे लगता है घटने के बाद चश्मदीद वहां पहुंचे।

कोर्ट ने कहा कि घायल को गाड़ी से थाना रेवती ले गए। वहां मजरूबी चिट्ठी लिखी गई। मजरूबी चिट्ठी कब किसने लिखी स्पष्ट नहीं। फिर, घायल को बलिया सदर अस्पताल ले गये जहां उसे मृत घोषित कर दिया गया। पत्नी के अलावा अन्य चश्मदीद गवाहों को कोर्ट में पेश ही नहीं किया गया। आरोपितों से दुश्मनी के कारण चार्जशीट दाखिल की गई। लेकिन, पिस्टल से फायर करने के आरोपी मुकेश का कोई संबंध ही नहीं था। वह तो मृतक की दूसरे को बेची गई जमीन खरीदार से खरीदना चाहता था। उसका कोई झगड़ा भी नहीं था।

कोर्ट ने कहा प्राथमिकी देरी से दर्ज हुई, जबकि पीड़ित दो बार थाने पर गए। अस्पताल जाते समय व अस्पताल से लौटते समय। वे एफआइआर दर्ज करा सकते थे। मजरूबी चिट्ठी लिखने का दिन व समय स्पष्ट नहीं है। बयान भी विरोधाभाषी है। आरोपियों के खिलाफ ठोस सबूत नहीं है। हत्या की काल्पनिक कहानी गढ़ी गई।

कोर्ट ने कहा कि घटना की कई संभावना दिखायी दे रही। हो सकता है मृतक प्रताप शंकर मिश्र बरामदे में चारपाई पर सो रहे हों और घायल होने पर कमरे की तरफ भागे हों। इससे कमरे में खून गिरा हो। दोनों भाई आंगन के बरामदे में सोये थे या सहन के बरामदे में? स्पष्ट नहीं है। पत्नी व भाई के कपड़े पर खून न होने से लगता है चश्मदीदों ने घायल को छुआ तक नहीं। विचारण न्यायालय ने इन तमाम बिंदुओं पर विचार ही नहीं किया और सजा सुना दी।


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