शायद ही विवाद से बाहर आ पाए एससी-एसटी एक्ट
ताराचंद्र गुप्त , इलाहाबाद : 'देखिए मौजूदा दौर में एससी-एसटी एक्ट का विवादों से बाहर आ पाना असंभव
ताराचंद्र गुप्त , इलाहाबाद : 'देखिए मौजूदा दौर में एससी-एसटी एक्ट का विवादों से बाहर आ पाना असंभव दिखता है। इसकी कई वजहें हैं। सबसे अहम है इस कानून का दुरुपयोग।' सुप्रीम कोर्ट के हालिया आदेश को दुर्भाग्य से किसी ने गहराई से नहीं पढ़ा। यदि पढ़ा होता तो दो अप्रैल को जिस तरह अप्रिय वारदातें हुईं, वैसी नहीं होती। 'दैनिक जागरण' की सोमवारीय अकादमिक परिचर्चा में इस बार इलाहाबाद हाई कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता गोपाल स्वरूप चतुर्वेदी ने यह बातें कहीं। एजेंडा था- विवाद से कैसे बाहर निकले एससी-एसटी एक्ट।
अतिथि वक्ता का कहना था कि दलितों पर होने वाले अत्याचार की घटनाओं को रोकने के लिए एससी-एसटी कानून बनाया गया था, लेकिन मामूली विवाद में ही इस एक्ट के दुरुपयोग के ढेरों मामले हैं। दरअसल बेईमान मुद्दई और जांच अधिकारियों के चलते ऐसी हमेशा रहती है। कोई एक्ट ही जातिगत हो जाए तो विवाद बना रहेगा। गोपाल स्वरूप चतुर्वेदी के मुताबिक होना यह चाहिए कि अगर किसी दलित को पीटने और उसका घर जलाने में 10 लोग शामिल हैं तथा उनमें पांच दलित हैं तो सभी पर एससी-एसटी एक्ट लगना चाहिए। साथ ही अपराध करने वाले आरोपितों को बराबर सजा मिलनी चाहिए, लेकिन जाति और राजनीति आड़े आ जाती है। अतिथि वक्ता ने सवाल पूछा कि क्या किसी भी महिला को निर्वस्त्र कर घुमाए जाने पर उसकी पीड़ा अलग-अलग होगी? वह दलित हो, सवर्ण अथवा मुस्लिम या ईसाई क्या उनकी पीड़ा एक जैसी नहीं होगी। जवाब जब यह आया कि महिला तो महिला, उसी तकलीफ एक जैसी होगी तो उन्होंने पूछा कि फिर अलग-अलग एक्ट क्यों?
सुप्रीम कोर्ट का फैसला पढ़ा ही नहीं गया
अतिथि वक्ता ने दावा किया कि 26 मार्च को सुप्रीम कोर्ट का जो जजमेंट आया, लेकिन उसे किसी ने पढ़ा ही नहीं। चुनाव नजदीक आ रहे हैं, इसलिए राजनीति शुरू हो गई। बोले, अगर जजमेंट पढ़ा गया होता तो भारत बंद के दौरान ¨हसा नहीं होती। उन्होंने फैसले का जिक्र करते हुए बताया कि यह एक अधिकारी के प्रमोशन से जुड़ा मामला था। जिस अधिकारी को प्रमोशन नहीं मिला था, उसने अपने उच्चाधिकारी के विरूद्ध दलित एक्ट में मामला दर्ज करा दिया। सर्वोच्च अदालत ने सिर्फ इतना भर कहा था कि संबंधित उच्चाधिकारी के नियोक्ता का पक्ष लिए बिना गिरफ्तारी नहीं होना चाहिए। इसके पीछे भी सुप्रीम कोर्ट के पास आधार थे। पुलिस कमीशन की दो दो रिपोर्टो में कहा गया है कि 60 फीसद मामले झूठे निकलते हैं। पुलिस रेगुलेशन एक्ट में विवेचना का चैप्टर है। उसमें लिखा है कि कुछ अपराध के बारे में रिपोर्ट दर्ज करने से पहले जांच की जानी चाहिए। यह सेफ गार्ड है। गिरफ्तारी के कारण मजिस्ट्रेट और अदालत भी देखती है। शीर्ष अदालत का हालिया जजमेंट केवल लोक सेवक के मामले में है, न कि हत्या, मारपीट जैसे मामलों के लिए, लेकिन बुद्धिजीवी भी खामोश रहे, यह चिंताजनक है। सुप्रीम कोर्ट को लेना चाहिए स्वत: संज्ञान
परिचर्चा के दौरान संपादकीय सहयोगियों ने अपनी जिज्ञासाओं को शांत किया। एक सवाल यह उठा कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लेकर ¨हसा हुई। सरकारी संपत्ति को नुकसान हुआ और 10 से ज्यादा लोगों की मौत हो गई। ऐसे में क्या सुप्रीम कोर्ट को स्वत: संज्ञान लेकर कार्रवाई नहीं करनी चाहिए? अतिथि वक्ता का कहना था कि हां, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने अपना दायित्व नहीं निभाया। बोले, जाहिर है धरना, प्रदर्शन की अनुमति प्रशासन से ली गई होगी। ऐसे में उनसे और सरकार से इस मामले में उसका पक्ष जानना चाहिए। जो दल भारत बंद के समर्थन में थे, उनको भी कठघरे में खड़ा करना चाहिए। जब बार एसोसिएशन किसी फैसले के विरोध में कोई कदम उठाता है तो उसे अवमानना माना जाता है फिर ¨हसा करने वाले इस दायरे से बाहर कैसे हो सकते हैं। क्रिमिनल ट्रायल किसी दशा में 20-20 साल तक नहीं चलना चाहिए। कहीं न कहीं यह हमारी न्यायिक व्यवस्था पर सवालिया निशान लगाती है। इससे पहले वक्ता का संक्षिप्त परिचय कराते हुए विषय प्रवर्तन आउटपुट प्रभारी सुरेश पांडेय ने किया। संपादकीय प्रमुख जगदीश जोशी ने दैनिक जागरण परिवार की तरफ से अतिथि वक्ता के प्रति धन्यवाद ज्ञापित किया। अतिथि परिचय-
वरिष्ठ अधिवक्ता गोपाल स्वरूप चतुर्वेदी ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय बीएससी और एलएलबी की शिक्षा प्राप्त की। वह वकालत के पेशे से 1972 में जुड़े। इलाहाबाद हाईकोर्ट में उन्हें 1997 में वरिष्ठ अधिवक्ता घोषित किया गया। विधि क्षेत्र में उनकी अलग पहचान है। उनके पिता प्रकाश चंद्र चतुर्वेदी भी जाने-माने विधिवेत्ता थे। गोपाल स्वरूप चतुर्वेदी बतौर अधिवक्ता देश और दुनिया में चर्चित रहे निठारी कांड और आरुषि हत्याकांड जैसे मामलों से भी जुड़े रहे हैं।