एकता के लिए मानसिक, वैचारिक समानता जरूरी
ऊं संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्। देवा भागं यथा पूर्वे संज्जानाना उपासते।।
अलीगढ़: ऊं संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्। देवा भागं यथा पूर्वे संज्जानाना उपासते।। एक साथ मिलकर चलें, साथ मिलकर बोलें, हमारे मन एक से हों जैसा कि पूर्व में देवों का आचरण था। इसी कारण से भारत विश्व का मार्गदर्शन करता आया है। संस्कृति का आदिस्त्रोत रहा है। यहां से ज्ञान-विज्ञान की अजस्र धाराएं विश्व कल्याण के लिए प्रवाहित होती रही हैं। श्रेष्ठ एवं सुसंस्कृत जीवन जीने के क्षेत्र में मार्गदर्शन करने के आधार पर यह जगदगुरु के पद पर सुशोभित हुआ। अखंडता शब्द का अर्थ है संपूर्णता अर्थात जो कभी टूटता नहीं है। जिसका खंडन न हो सके। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं एक डोर में बंधा होना, जिनको एक दूसरे से दूर नहीं किया जा सकता। हमारा विश्व भी इसी प्रकार की डोर में बंधा हुआ था। सभी देश एकता के सूत्र में बंधे हुए थे। आपस में सभी में भाईचारा था। विश्वस्तर पर अखंड एकता बनाए रखने के लिए केवल शारीरिक समीपता ही महत्वपूर्ण नहीं होती बल्कि उसमें मानसिक, वैचारिक और भावनात्मक निकटता की समानता भी जरूरी है।
आत्मवत् सर्वभूतेषु, वसुधैव कुटुम्बकम्
विश्व को एक सूत्र में बांधना भारत की परंपरा रही है। भारत ही सभी संगठन की शक्तियों की जड़ है। सभी को एकता के सूत्र में बांधे रखता है। एकता के बल पर ही अनेक राष्ट्रों का निर्माण हुआ। बिना एकता के कोई भी देश उन्नति नहीं कर सकता। एकता एक महान शक्ति है एकता के बल पर बलवान शत्रु को भी पराजित किया जा सकता है। विश्वस्तर पर अखंड एकता बनाए रखने के लिए भारत ने हमेशा पहल की है। जितने सारे धर्म, संप्रदाय, समूह, जातियां, भाषाएं तथा क्षेत्र हैं, इन सबको एकसूत्र में बांधे रखना व इन्हें एकजुट बनाए रखना निश्चित रूप से एक चुनौती पूर्ण कार्य है। इन्हें मात्र राजनीतिक, आर्थिक या शासकीय कौशल के आधार पर नहीं साधा जा सकता। इन्हें तो केवल नैतिक, सांस्कृतिक व आध्यात्मिक आधार पर ही एकजुट रखा जा सकता है। ये भारतीय संस्कृति ही है जो केवल देश को नहीं, बल्कि पूरे विश्व को एकसूत्र में बांधने की क्षमता रखती है। राष्ट कवि रामधारी सिंह दिनकर के शब्दों में विश्व की भावी एकता की भूमिका भारत की सामाजिक संस्कृति में है। जैसे भारत ने किसी भी धर्म का दलन किए बिना अपने यहां धार्मिक एकता स्थापित की, जैसे किसी जाति की विशेषता को नष्ट किए बिना सभी जातियों को एक सांस्कृतिक सूत्र में आबद्ध किया, उसी प्रकार हम संसार के सभी देशों में जातियों व सभी विचारों के बीच एकता स्थापित कर सकते हैं। आज वैश्वीकरण के दौर में जब पूरा विश्व एक गांव में बदल चुका है, दिलों के मध्य जो भावनात्मक दूरियां बढ़ी हैं उनको सांस्कृतिक संवेदना के आधार पर ही पाटा जा सकता है। ऐसा प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान भी हुआ था। 1939 में आपसी मतभेदों के कारण द्वितीय विश्वयुद्ध हुआ। युद्धों के बाद यूनाइटेड नेशन की स्थापना की गई। इसका मुख्य उद्देश्य विश्व शांति कायम करना तथा तबाही से बचाना था। इसके लिए एक नवजागरण की आवश्यकता थी जो भारत ने प्रारंभ की।
अयं निज: परोवेति गणना लघुचेतसाम्। उदारचरितानाम् तु वसुधैव कुटुम्बकम्।। सभी ईश्वर के पुत्र हैं और सभी में परमात्मा का निवास है। यह मानते हुए हम परस्पर एकता, निश्छलता, प्रेम और उदारता का व्यवहार करने लगें तो हम पूरे भारत को ही नहीं अपितु विश्व को एकसूत्र में पिरोने में सफल हो सकेंगे। विश्व के अन्य देशों को भारत से सीखना होगा कि यहां विभिन्न संस्कृतियों, धर्मों और संप्रदायों के लोग मिलकर रहते हैं। उसी प्रकार विश्व के अन्य देशों को भी विश्वपटल पर एक बनकर रहना होगा इस प्रकार विश्व अखंड विश्व बन जाएगा।
निर्मल अग्रवाल, प्रधानाचार्य, विजडम पब्लिक स्कूल